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आत्मानुशासन
शार्दूलविक्रीडित छन्द नेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्र सुरा सैनिकाः, स्वगों दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारणः । इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलभिद्भग्नः परैः संगरे, तव्यक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषम् ।।३२।। अर्थ-जहां वृहस्पति तो मन्त्री अर वज्र हथियार अर देव सेनाविषै चाकर, स्वर्ग गढ़ अर हरि जो ईश्वर ताका अनुग्रहसहाय, अर ऐरावत हाथी पाईए ऐसा आश्चर्यकारी बलसहित है तो भी इन्द्र है सो औरनि करि संग्रामविषै हारया। ता निश्चय करि यह प्रगट है:-दैव है , सो ही शरण सहाय है। वृथा निःफल जो पुरुषार्थ है सो ताकू धक्कार है, धिक्कार है। ___ भावार्थ-जो जीव पुरुषार्थकरि दुःख निवारना मानि जैसे अपना पुरुषार्थ सधै तैसै उपाय करै है ताकों कहै हैं:-पुरुषार्थ तौ निष्फल है। पुण्य कर्म है ताहीका नाम दैव है, सोई सहाय है । ताकौं होतें पुरुषार्थ भी कार्यकारी हो है। उस बिना पुरुषार्थ किछु कार्यकारी नाहीं । इहां वैष्णव मत अपेक्षा उदाहरण कहा। जो देवतानिका इन्द्र बलवान है तो भी दैत्यनि करि संग्राम विषै हारया । अथवा यहीका जैन मत अपेक्षा अर्थ कीजिये तो इन्द्र नामा विद्याधर भया है वा. मंत्री आदिकका बहस्पति आदि नाम धरया है, सो बहुत पुरुषार्थकरि संयुक्त भया सो भी रावण करि हारया, तातै पुरुषार्थको निरर्थक जानि पुण्यकर्म ही कार्यकारी जानि पुण्यका साधन करना योग्य है ।
इहां तर्क:-जो हिंसादिकका त्याग देख्या नाहीं ताका आचरण करनेवाला भी असंभव भासै है। जातै तिनकी पहलैभई वार्तामात्र ही सुननेंमें आवै है । ऐसे कहतां पुरुषको उत्तर कहै हैं:
शार्दूलविक्रीडित छन्द भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पहाः। स्पष्टाः कैरपि नो नभो विभुतया विश्वस्य विश्रान्तये । सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराःसन्तः कियन्तोऽप्यमी ॥३३।।
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