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पुण्यका सुखप्रदानत्व गुण
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भावार्थ - अनृत, स्तेय विषै गर्भित ऐसा दुष्टपनां, दीनपनां, ठिगपनां, चोरपनां, असत्य बोलना महापाप रूप पातककार्य करनां इत्यादिक कार्यनिका त्याग करना योग्य है । इनका त्याग इसलोक-परलोक विषै हितकारी है । जातैं इनके त्यागतें अणुव्रत, महाव्रत रूप धर्म हो है । बहुरि लोकविषं विश्वास होनें करि धन उपार्जनके निमित्त बने हैं । बहुरि लोक विरुद्ध कार्य छोड़नें तैं जस हो है । बहुरि आकुलता मिटनेतें वा सुखका कारन तैं सुख हो है । बहुरि साता वेदनीयादि पुण्यका बन्ध हो है । तातैं इस लोक परलोकविर्षं इनका त्यागकौं हितकारी जांनि हे भव्य ! तुम ऐसा कार्य करौ ।
इहाँ तर्क :- जो व्रतीनिकै भी उपसर्ग दुःख आयें अपनी रक्षाकै अर्थ हिंसा, अनृत आदि पाप कदाचित् होइ, ऐसा तर्क किए इहां सूत्र कहै है . - ( वसन्ततिलका छन्द )
पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्यमनीदशोऽपि नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै ।
संतापयन् जगदशेषमशीतरश्मिः
पद्मेषु पश्य विदधाति विकासलक्ष्मीम् ||३१||
अर्थ - हे भव्य हो ! तुम पुण्यकौं करौ । जातैं पुण्य किया तिसको,
जिस सारिखा न देख्या ऐसा भी उपद्रव है सो नांहीं पोडै है । बहुरि वह उपद्रव है सो ही विभूति के अर्थ हो है । तूं इहाँ दृष्टान्त देखि - समस्त जगतकों आताप देता ऐसा सूर्य है सो कमलनि विषै विकासरूप लक्ष्मीकूं करे है |
भावार्थ–उपसर्ग दुःखदायक कारण है सो पुण्यवाननि कौं दुःख देने को समर्थ नाहीं । जैसे सूर्य औरनिकौं आतप उपजावे, कमलनिको प्रफुल्लित करै । तैसे उपद्रव है सो पाप उदय होइ तिनकूँ दुःख देवै है । जिनके पुण्यका उदय है तिनंनि विभूतिका दाता हो है । सो प्रत्यक्ष देखिये है। जिस उपद्रवविर्षं सर्वकूं बड़ा दुःख होई अर कोईके पुण्य उदय होय ताकै तिस उपद्रव ही विषै धनादिकका लाभ हो । तार्तं धर्मात्मा पुरुष है सो उपसर्ग आएं भी धर्मको छोडि हिंसादि पाप रूप नाहीं प्रवर्तें हैं ।
आगे पुरुषार्थ ही तैं शत्रुनिकों दूरि करि उपसर्ग निवारनिकों समर्थन है । तातैं पुण्यकरि पूरी परौं" किछू सिद्धि नाहीं ऐसी आशंका करि समाधान करने रूप सूत्र कहे हैं ।
१. पुरी परी - मु० ३१-४
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