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________________ २० आत्मानुशासन मोक्षके सुखकौं कारण हैं। ता शिकारादि कार्य छोरि सुखकै अथि धर्म ही अंगीकार करना योग्य है। - आगें शिकार खेलनांविषै आसक्त जे जीव तिनिकै अत्यन्त निर्दयपनां कौं दिखावता संता सूत्र कहै हैं _ अनुष्टुप्छंद भीतमूर्तीगतत्राणा निर्दोषा देहवित्तकाः । दन्तलग्नतृणा घ्नन्ति मृगीरन्येषु का कथा ॥२९॥ अर्थ-भयवान है मूर्ति जिनकी, अर रक्षाकरि रहित अर दोषकरि रहित अर शरीर मात्र धनकरि सहित अर दाँतनि विर्ष लगे हैं तण जिनिके ऐसी जै हिरणी तिनिकौं मार है औरनविषै अदयाकी कहा बात है ? ___ भावार्थ-लोकविषै राजादिक समर्थ पुरुष हैं तै भी एक तो भयवांन कौं न मारै, वार्फ अपणे शरण राखै । बहुरि जाका रक्षक न होइ ताकौं न मारै, अनाथकी रक्षा ही करै । बहुरि जामैं चोरी आदि दोष नाहीं ताकौं न मारे, शिष्टकी प्रतिपालनां ही करै। बहरि जांके धन न होइ तार्क न मारे, रंकनिकी सहाय ही करै। बहरि दाँताँ तिणाँ लियाँ होइ ताकौं न न मारै । मान छोडि निर्भय ही करै। बहरि स्त्रीकौं न मारै । स्त्री आदिकी हत्या पुरुषार्थका धारी न करै । ऐसे एक-एक वार्ता जाकै पाइये तांकौं भी मारना युक्त नाहीं। सो हरिणीनिविष तो ए सर्व बात पाइए हैं। तिनकों भी शिकार खेलने वाले मारे हैं तो उनके औरनकी दया कैसे होय ? तारै शिकारी पुरुष महानिर्दय महापापी जानने । ___ आगें हिंसाका त्याग रूप व्रतविर्षे दृढ़पनौं करि अनृत स्तेयका त्याग रूप व्रतविर्षे तिस दृढ़पनां करनेकौं सूत्र कहै हैं : आर्याछन्द पैशुन्यदैन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात् । लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयशःसुखायार्थम् ॥३०॥ अर्थ-दुष्टता अर दीनता, कपट अर चौरी अर असत्य अर हत्या आदि, पातिक इत्यादि पाप कार्यनि का त्याग करनँ रौं हे भव्य ! तू दोऊ लोक सम्बन्धी हितका उपार्जन करि । इहां प्रयोजन कहै हैं । धर्म, अर्थ, जस, सुख, पुण्य इनिके अथि ऐसा कार्य करि । ऐसै हम तोकौं प्रेरै हैं। १. मुनि हत्या० ज० पू० ३०-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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