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शिकारादि कार्य दुःखके स्थान हैं
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साक्षात् मोक्ष कौं साध्या चाहै सो सर्वविषय छोरि मुनिपद अंगीकार करै है |
ऐसै आगै कोऊ तर्क करै है: - जो शिकार खेलना आदि हिंसादिरूप कार्य ताकै भी धर्मवत् सुखका कारणपनांकी सिद्धि है । जैसे धर्म तैं सुख उपजता कहौ हौ तैसे शिकार आदि कार्यनितें भी सुख होता देखिये है, तातैं धर्मंका घातक आरंभ तैं पाप हो है ऐसा कैसे कहो हौ ? जातैं पापका कारणकै सुखका कारणपनाका विरोध है । ऐसी आशंका करि ताकौं निराकरण करता संता सूत्र कहै है :
शार्दूलविक्रीडित
अध्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्षदुःखास्पदं । पापैराचरितं पुरातिभयदं सौख्याय संकल्पतः ।। संकल्पं तमनुज्झितेन्द्रियसुखैरासेविते धीधनै
कर्मणि किं करोति न भवान् लोकद्वयश्रेयसि ||२८||
अर्थ — जो यहु शिकार आदि कार्य हैं सो प्रत्यक्ष दुःखका ठिकानां हैं । बहुरि पापी जीवनिकरि आचारया हुवा है । बहुरि आगे नरकादिविषै बहुत भयका दाता है । ऐसा है तो भी तेरे संकल्प जो मनका उल्लास सुख अर्थ हो है । तिस संकल्पकौ तू धर्म कार्यनिविषै क्यों न करे है ? कैसा है धर्म कार्य- मिलें हैं इंद्रियसुख जिनकों ऐसे बुद्धि धनसंयुक्त जीव तिनकरि सेवनीक है । अर इसलोक-परलोकविषै कल्याणकारी है ।
भावार्थ - शिकारादि कार्य कौं तूं सुख का कारण माने है सो है तो प्रत्यक्ष दुःखका स्थानक, जातें तहाँ खेद, क्लेश, आकुलता विशेष हो है । परंतु तेरै तिस कार्य करनें का उल्लास भया सो तेरी मानितें सो कार्य सुखके अथ हो है । बहुरि जो दुःखका स्थानक ही तेरी मांनितैं सुखके अर्थि भया अर जो खेद, क्लेश, आकुलता घटनेंतैं प्रत्यक्ष सुखका स्थानक धर्मकार्य तिसविषै तैसी जो मानि करै तो सुखकै अथि कैसे न होइ ? बहुरि तू जानेगा शिकार आदि कार्य तो भोगी पुरुषन के करनैके हैं, अर धर्म कार्य योगी का करनेका है, सो ऐसे नांहीं, शिकार आदि कार्यको तो अहेड़ी आदि पापी ही करे हैं । अर धर्म कार्यकौं चक्रवर्ती आदि महाभोगी सो आदरें हैं । बहुरि आगामी भला जातै होइ तिस दुःखविषै भी सुख मानिये सो शिकार आदि कार्य तौ नरकादि दुखकौं कारण है । धर्म है सो स्वर्ग
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