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________________ आत्मानुशासन को गएं संतॆ पिता पुत्रनिके भी परस्पर घात क्रिया देखिए है। तातै प्रकट इस जगतकी रक्षा धर्म ही है। भावार्थ-धर्म बुद्धि होतें तौ काह कोई न मारै अर धर्मबद्धि न होइ तब वह वाकौं मारै । तातें धर्म न होइ तो बलवान् निर्बल को मारै । उसतें बलवान् वाकौं मारै । ऐसे सर्व लोक नष्ट होइ । परंतु स्वयमेव लोकविषै धर्मकी प्रवृत्ति है, तातें जीवनिके परस्पर रक्षा करनेके भी परिणाम हैं। तिर्यंचादिक भी बिना प्रयोजन छोटे जीवनिकौं भी न मारते देखिए हैं। तात लोकका रक्षक धर्म ही है। बहुरि जो धर्म लोकका रक्षक है सो ताके साधनेवालाका रक्षक कैसे न होगा ? तातें अपना भी रक्षक धर्म ही कों जानि ताका सेवन करना योग्य है । इहाँ प्रश्नः-जो विषय सुखकौं भोगवते प्राणी तिनकै पापका उपजना संभवै है, तातें धर्म कैसे होइ ? ऐसी आशंका करि उत्तर कहै हैं: आर्या छन्द न सुखानुभवात् पापं पापं तद्धेतुघातकारम्भात् । नाजीणं मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥२७॥ अर्थ–सुखके भोगवनें तैं पाप नाहीं है । तिस सुखका कारण जु है धर्म ताका घात करनेवाला जो कार्य ताका आरंभ करने” पाप हो है । इहाँ दृष्टान्त कहै है :-मिष्ट अन्नका भोजन तैं अजीर्ण न हो हैं । तिस भोजनकी मात्रादिकताका उल्लंघन तें अजीर्ण हो है । भावार्थ--जैसैं अजीर्णका कारण मिष्ट भोजन नाहीं, आसक्तता ते अधिक भोजनादिक अजीर्णका कारण है। तैसैं पापका कारण विषयसेवन नाहीं, धर्मका घात करि बहुत कषायादिककी प्रवृत्ति सो पापका कारण है । इंद्रादिक देव वा भोगभूमिया वा तीर्थंकरादिककै विषय सामग्री पाइए है तिनि का सेवन भी है। परंतु नरकादिकका कारण पापका बंध होता नाहीं। बहरि तंदूल मच्छादिकै बहत तृष्णात वा पर्वतादिककै मिथ्यात्वादिकतें बहत विषयसेवन किये बिना ही धर्मका घात करने करि नरकादिकका कारण पाप बंध हो है । तारौं मोविषय छूट नाहीं, विषय छूटें बिना धर्म होइ नाहीं, ऐसी आशंका करि धर्मकी अरुचि करनीं नाहीं । इहाँ प्रश्नः-जो ऐसे हैं तो विषय छोरि मुनि पद काहे कौं ग्रहण करै है । ताका समाधानः-नरक तिर्यंचादिरूप बंधको कारण जो पाप ताका अभाव तौ गृहस्थ अवस्थाविर्षे ही साधन किये हो है । परंतु इहाँ स्वर्गादिकका कारण परंपरा मोक्षकौं साधै ऐसा धर्म सधै है । तातें धर्म वृद्धिकरि जो जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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