________________
धर्मके सद्भाव और अभाव में गुण-दोष दर्शन
१७
वना जानना । इहाँ तर्क- जो यहु उपदेश छिपावनेमात्र है । व्यक्तरूप नाहीं, जातें तिस विषयसुखका भोगवने विषै धर्मं उपार्जन करने को सर्वथा असमर्थपनों है ऐसे तर्क कियें कहै हैं:
आर्या छंद कर्तृत्व हेतु कर्तृत्वानुमतैः स्मरणचरणवचनेषु । यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः || २५ ||
अर्थ - कर्तापनों सो कृत, अर हेतुकों कर्तापनों सो कारित, कर्ताका अनुसारी अभिप्राय सो अनुमोदन, इनि तीनू करि स्मरण, मनका विचार अरू आचरण चरण, काय करि अंगीकार अर वचनभाषा करि बोलना इनि विषै जो धर्मं सर्व प्रकार पावनें योग्य है सो धर्म कैसै संग्रह न करना ?
भावार्थ - जो एक ही प्रकार धर्म होता होइ तौ सर्व विषयनिका त्याग कियें ही धर्महोइ परन्तु यावत्सर्व विषयका त्याग न होइ सकै तावत् अनेक प्रकार करि थोरा थोरा धर्म ही का संचय करना । जैसे अनेक व्यापारनि कर धन भेला करै तैसै अनेक प्रकार धर्म साधनिकरि धर्मका संचय करना । सो धर्मका संचय नव प्रकार हो है । मन करि धर्म करना, करावना, अनुमोदना । वचन करि धर्मं करना, करावना, अनुमोदना । काय करि धर्म करना, करावना, अनुमोदना । बहुरि धर्मके अनेक अंग हैं तिनिविर्षं जो धर्म बनै सांई करना । बहुरि एक भी धर्मं थोरा घनां जेता बनें तेताही करना । ऐसे सर्व प्रकार धर्म का संचय हो है, तातें सुलभ है । बहुरि तू कठिनता प्रगटि करि धर्मविषै निरुद्यमी भया चाहै है सो जैसे निरुद्यमी पुरुष दरिद्री होइ दुःख पावै तैसै तूं पुण्यहीन होइ नरकादिविषै दुःख पावैगा । तातैं धर्मका संग्रह ही करना योग्य है ।
आगें ऐसा धर्म जीवनिका चित्तविषै वर्तमान होत संते बहुरि न वर्त - मान होत संते जो फल हो है ताकौ दिखावता संता सूत्र कहै है
वसन्ततिलका छन्द
धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावात्,
हन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन् ।
दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां
रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ॥ २६ ॥
अर्थ — हे शिष्य ! तू देखि, यावत् मन विषै अत्यर्थपनें धर्म बसे है, तावत् अपने हननेवाला का भी आप हननेवाला न हो है । बहुरि तिस धर्म
२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org