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आत्मानुशासन भावार्थ-कोई शरीरकी सामर्थ्य न होनेंकरि, कोई धनादिक न होने करि, कोई सहायादिक न होनेंकरि धर्म साधन न होता मानें है सो यहु भ्रम है। परको दोष लगाइ उपदेशको निरर्थक करो मति, तुम सुनौ । पुण्य अर पापका कारण परिणाम ही है। जातें पर का किया पुण्य पाप होता नाहीं । अपने ही परिणमनिरौं पुण्य पाप हो है, ता” अशुभ परिणाम छाँडना शुभ परिणाम करना। ऐसे तुमको पापका नाश, पुण्य का संचय करना योग्य है।
आर्गे जे जीव धर्मका संचय कों न करत संते विषय सुखनि को भोगवै हैं तिनकी निंदा दिखावतां सूत्र कहै है
आर्या छंद कृत्वा धर्मविघातं विषयसुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् । आच्छिद्य तरून्मूलात् फलानि गृह्णन्ति ते पापाः ॥२४॥
अर्थ-जे जीव मोह भ्रमतें धर्मका घातकरि विष सुखनिकौं भोगवै हैं ते पापी मूल तैं वृक्षनिकौं छेदि करि फलनि कौं ग्रहै हैं।
भावार्थ-जैसे कोई पापी फल ही कौं चाहै परंतु रौद्रभावनि तें वृक्षकों जड़त काटि जे फल हाथि लागै तिनकौं ग्रहण करै, तैसै मोही जीव सुख ही कौं चाहै । परंतु पाप बुद्धि” धर्मका घात करि जो सुख उदै आवै ताकों भोगवै । इहाँ इतना समझना जैसे वृक्ष को काटो वा राखो फल तो जेता पाइए है तितना ही हाथि लागै । वृक्षकौं काटें आगामी फलप्राप्ति होनी नाहीं, राखै आगामी फल प्राप्ति होइ । तैसैं धर्मको राखौ वा घातौ। सुख तो जेता उदय होना है सो ही होसी। धर्म कौं घातें आगामी सुख प्राप्ति होनी नाहीं । राखै आगामी सुखकी प्राप्ति हो है। इहाँ प्रश्न जो धर्म का घात करि सुखका भोगवना कहा, अर धर्मकौं राखि सुखका भोगना कहा, ता का उत्तर । धर्म का अवसर विर्षे भी पापरूप रहना, अन्यायरूप पाप कार्य करना मिले विषयनितै घनें विषयनि की तृष्णा करनी, कषायपरिणाम तीव्र राखनैं । इत्यादि प्रवृत्ति लिए विषय-सुखका भोगवनां सो तौ धर्मका घातकरि सुखका भोगवनां जाननां । बहुरि धर्मका अवसर विषै धर्म साधना । अन्यायरूप पापकार्य न करना । मिले विषयनि विर्षे संतोषरूप रहना । कषाय बहुत न करनी इत्यादि प्रवृत्ति लिएं । किछू विषयसुख का जो भोगवना सो धर्म राखि सुखका भोगवना जानना। बहुरि जहाँ कषाय ही न होइ तहाँ विषय सामग्रीका त्याग कियें दुख सामग्री मिले भी निराकुल रहे है। हाँ तहाँ परमार्थ धर्मकों राखि परमार्थ सुखका भोग
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