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धर्मका फल और धर्म अर्थ-धर्म तें पाया है सुखसंपदारूप विभव जानें, ऐसा जीव है सो धर्मको पालिकरि भोगको भोगवो। जैसै बीज तैं पाया है अन्न जिहिं ऐसा खितहड़ है, सो तिस अन्नका बीजको राखै ।
भावार्थ-जैसे अन्न निपजै है सो बीज बोएं निपजै है। बीज बिना खेदखिन्न भयें भी अन्न निपजै नाहीं । तातै स्याना खितहड़ ऐसै बिचारे:जो मेरे बोजतै अन्न भया है सो अब भी बीज राखै मेरे आगें भी अन्नकी प्राप्ति होसी । तातें बीज कौं राखि अन्न भोगवना। तैसैं सुख हो है सो धर्म किये हो है । धर्म बिना खेदखिन्न भयें भी सुख होइ नाहीं। तातें तू स्याना है सो ऐसे बिचारि जो मेरे धर्मका फल तें सुख भया है सो अब भी धर्म साधैं मेरे आगामी सुखकी प्राप्ति होसी । तातै धर्मको राखि सुख भोगवना । बहुरि ऐसैं विचारि जैसै धर्म रहै तैसै पुण्य का उदय तें निपज्या सुखकौं भोगवो । आगे धर्म” कैसा फल पाइए है ऐसे पूछे कहे है
आर्या छंद संकल्प्यं कल्पवक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि ।
असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ।।२२।। अर्थ-कल्पवृक्षका तो संकल्प योग्य जाकों वचनकरि जाचिये ऐसा फल है। बहरि चितामणिका भी चितवन योग्य मनकरि जाकों जाचिये ऐसा ही फल है। बहुरि धर्मतँ संकल्प योग्य नाही, अर चितवन योग्य नाहीं। ऐसा कोई अद्भत फल पाइए है।
भावार्थ-लोकविर्षे कल्पवृक्ष चिंतामणिकौं उत्तम फलके दाता बताइए है सौ वै तो वचन मनकरि जाकौं जाचै ऐसा किंचित् विषय सामग्रीरूप ही फलको निपजावै है। बहुरि धर्म है सो वचन मन गोचर नाहीं, ऐसा अद्भत सुखरूप मोक्ष फलकौं निपजावै है। तातें कल्पवृक्ष चिंतामणि तैं भी धर्मकी प्राप्तिकौं उत्तम जानि याका साधन विर्षे तत्पर रहना योग्य है। आगें ऐसा धर्म काहै तें उपार्जन करिए हैं ऐसे पूछे कहै है
आर्या छंद . परिणाममेव कारणमाहुः खलुः पुण्यपापयो प्राज्ञाः । .. तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥२३॥
अर्थ-बुद्धिवंत हैं ते निश्चयकरि पुण्य पापका कारण परिणाम ही को कहै हैं। तातैं पापका नाश अर पुण्यका संचय भले प्रकार करना योग्य है।
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