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________________ आत्मानुशासन अर्थ-समस्त इन्द्रिय विषयनिकै सुख है तै धर्मरूपी जो बाग ताकै सम्यक्त्व संयमादिक वृक्ष तिनिके फल हैं। तातँ तू जिहिं तिहिं उपायनिकरि तिन वृक्षनिकों राखि तिनका फलनिको चूंटि ग्रहण करिहू । भावार्थ-जैसे स्याना पुरुष है सो जिनि बागनिका वृक्षनिके चोखे फल लागै तिनि वृक्षनिकी तो रक्षा करै अर उनके फल लागे तिनिको ग्रहण करै। तैसें तू विवेकी है तौ जिन धर्मका अंगनिका सुखरूप फल निपजै तिस धर्मके अंगनिकी तो रक्षा करि अर उनका फल सुख निपजे ताको भोगि । ऐसे ही किये सुखका विच्छेद न हो है। इहाँ विषय सुखकी प्राप्ति के अर्थिधर्मको आचरता जो जीव ताकै विषय सुखका अभाव हो है । ऐसी आशांकाकरि तू धर्मरौं विमुख मति होहु जातें ऐसा न्याय है आर्या छंद धर्मःसुखस्य हेतुहेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्य । तस्मात् सुखभंगभिया मा भूधर्मस्य विमुखस्त्वम् ।।२०।। अर्थ-धर्म है सो सुखका कारण है। बहुरि सुखका कारण होइ सो अपने कार्यका विरोधी होइ नाहीं। तारौं तूं सुखका भंग होने का भय करि धर्म तैं विमुख मति होहु । ___ भावार्थ-लोकविर्षे यहु प्रसिद्ध है जिस कार्यका जो कारण, होइ सो तिस कार्यका सो कारण विरोधी नाश करणहारा न होइ। इहाँ सुख तो कार्य है अर धर्म कारण है, सो धर्म सुख का भंग कैसे करेगा? क्योंकि सुख तो धर्मका फल है। सो अपने फलकों आपही कैसे घातें ? तात' धर्मका साधन करता "मेरा सुख विषै भंग होगा" ऐसा भयकरि धर्म विषै अनादर मति करें। कारण तें कार्य की वृद्धि ही हो है, तातें धर्मसाधै सुखकी वृद्धि ही हो है, ऐसा निश्चय करि धर्मविर्षे प्रीति ही करनी योग्य है। ___ आगें इस ही अर्थ करैं दृष्टान्तद्वारा करि दृढ़ करता संता सूत्र कहै है आर्या छंद धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु । बीजादवाप्तधान्यः कृषीवलस्तस्य बीजमिव ॥२१॥ १. कैसे करेमा तातें ज० पू० २०-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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