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चारित्र-आराधना भावार्थ-जैसे काहूकै विरुद्ध भोजन” ज्वर भया ता करि तृषा बहुत भई, बहुरि सामर्थ्य घटि गया, ताकौं पीवने योग्य आदि भोजनका अनुक्रम सोई गुणकारी है । गरिस्ठ भोजन करै, अर पचै नांहीं तब उलटा रोग बधै तैसै हे शिष्य ! तेरे विषय वासनातै मोह उत्पन्न भया, ताकरि परवस्तुकी तृष्णा भई । बहुरि आतम शक्ति घटि गई ताको अणुव्रतरूप साधनका अनुक्रम सोई गुणकारी है। मुनिपद ग्रहण करै अर सधै नांहीं तब उल्टा संसार बधै । इहाँ प्रयोजन यह है यावत् अंतरंग राग परिणाम रहै तावत अनुक्रमत थोरा-थोरा साधनकरि धर्म बधावना। आगै यहु तिस चारित्र आराधनाका प्रारंभ किसकौं करना योग्य है
आर्या छंद सुखितस्य दुखितस्य च संसारे धर्मएव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धयै दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥१८॥
अर्थ संसार' विषै सुखी वा दुखी जो तूं सो तुझकौं धर्म ही करना योग्य है। सूखीकै तौ तिस सुख की बधवारीकै अथि है। अर दुःख भोगताकै तिस दुःखका नाशकै अर्थि है।
भावार्थ-जैसे जाकै पूँजी होइ ताकौं भी धन कुमावना योग्य है, अर जाके ऋण होइ ताँकों भी धन कुमावना ही योग्य है। पंजी होइ अर धन कुमावै तो पूँजी की वृद्धि होइ, अर ऋण होइ अर धन कुमावै तो ऋण का नाश होइ। तैसें जाकै पूण्य उदय तें सुख पाईए है ताकों भी धर्म ही करनां योग्य है । अर जांकै पाप उदय तें दुख पाईये है ताकों भी धर्म करनां योग्य है। सूखी होइ धर्म करै तें सुख बधवारी होइ । दुखी होइ धर्म करै तो दुःखका नाश होइ। तातै सर्व अवस्था विर्षे धर्मका साधन भला है, यहु तात्पर्य जाननां ।
आणु विषय सुख है सो धर्मका फल है यातें धर्म की रक्षा कर्ता पुरुष करि विषय सुख भोगवना योग्य है । सोही कहै है
(आर्या छंद) धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युच्चिनु यैस्तैरुपायैस्त्वम् ।।१९।।
१. संसारी विष ज० पू० १८-५ । २. अभाव हो है-वर्तः सुखस्य ज० उ० १९-९
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