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आत्मानुशासन ____ अर्थ-हे भव्य ! जो शास्त्र-पठन बिना वीतरागकी आज्ञा ही करि, वचन सुननें ही करि श्रद्धान होइ सो आज्ञा सम्यक्त्व कह्या है। बहुरि ग्रन्थ विस्तारका सुननें बिना बाह्याभ्यंतर परिग्रहरहित ऐसा कल्याणरूप मोक्षका मार्ग ताहि दर्शनमोहकी शांति होनें तें श्रद्धान करता जो होइ ताहि मार्गश्रद्धान कहै हैं । बहुरि उत्कृष्ट पुरुष तीर्थंकरादिक तिनके पुराणनिका उपदेशतें जो निपजी सो सम्यग्ज्ञानकरि आगम समुद्रविषै प्रवीण पुरुषनिकरि उपदेश है आदि विषै जाकै, ऐसी दृष्टि कही है, यह उपदेश सम्यक्त्व है।
स्रग्धरा छंद आकर्ष्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टिदरधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमशाद बीजदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ।।१३।।
अर्थ-मुनिके आचरणका विधानकों प्रतिपादन करता जो आचारसूत्र ताहि सुनि करि श्रद्धान करता जो होइ सो सूत्रदृष्टि भले प्रकार कही है । यह सूत्र सम्यक्त्व है । बहुरि केई बीज जे गणितज्ञानकों कारण तिनि करि अनुपमदर्शनमोहका उपशमके वशतें दुष्कर है जाननेकी गति जांकी ऐसा जु पदार्थनिका समूह, ताकी भई है उपलब्धि श्रद्धानरूप परिणति जाकै ऐसा करणानुयोगका ज्ञानी भव्य ताकै बीजदृष्टि हो है। यह बीज सम्यक्त्व जाननो । बहुरि पदार्थनिको संक्षेपपनैं ही करि जांनि श्रद्धानकों प्राप्त भया सो भली संक्षेपदृष्टि है । यहु संक्षेप सम्यक्त्व जानना ।
स्रग्धरा छंद यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टि, संजातार्थात् कुतश्चित् प्रवचनवचनांन्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढः कैवल्यालोकितार्थे रूचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ।।१४।।
अर्थ-अब जो द्वादशांगरूप वानीकों सुनि कीन्हीं जो रुचि श्रद्धान ताहि विस्तार दृष्टि हे भव्य ! तू जांनि । यह विस्तार सम्यक्त्व है । बहुरि जैनशास्त्रके बचननि बिना कोई अर्थका निमित्त” भई सो अर्थदृष्टि है। यहु अर्थसम्यक्त्व जाननां । बहुरि अंग अर अंगबाह्यसहित जैनशास्त्र ताकौं
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