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आत्मानुशासन अर्थः-मैं जु हौं शास्त्र कर्ता गुणभद्र सो वीर कहिये वर्द्धमान तीर्थंकर देव अथवा कर्मशत्रु नाशनेकों सुभट वा विशिष्टाई कहिए' लक्ष्मी ताकौं “राति" कहिये ग्रहैं ऐसा सर्व अरहंतादिक ताहि अपना हृदय विर्षे अवधारण करि आत्माको हितरूप शिक्षाका दैनहारा ऐसा जु आत्मानुशासन नामा शास्त्र ताहि कहूंगा।
ऐसे अपने इष्टदेवका ध्यान रूप मंगलाचरण करि शास्त्र करनेकी प्रतिज्ञा करी। कैसा है वीर, आत्मस्वभावरूप वा अतिशय रूप जो लक्ष्मी ताके निवास करनेका स्थान है, मंदिर है। बहरि कैसा है, विलीन कहिये विनष्ट भया है विलय कहिये पाप स्वभाव, ताका नाश जाके, ऐसा है। अविनाशी स्वरूप को प्राप्त भया है। ऐसे इनि विशेषणनि करि अपना इष्टदेवका वीर ऐसा नाम सार्थक दिखाया। बहुरि ताका सर्वोत्कृष्टपना प्रकट किया। बहुरि जो यहु शास्त्र कहौंगा सो भव्य जीवनिकै मोक्ष होनेकै अथि कहौंगा, अन्य किछ मान लोभादिकका प्रयोजन नाहीं है। याही तैं हित अभिलाषा जीवनिको उपादेय है। आगें शास्त्रका अर्थ विर्षे शिष्यनिका भयकों दूरि करि जैसी प्रवृत्ति पाइए हैं सो ही अंग या विषै है, ताका भाव कों दिखावता “दुःखात्" इत्यादि सूत्र कहै हैं :
आर्या छन्द दुःखाद्विभेपि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ।।२।।
अर्थ-हे आत्मा ! तूं अतिशय करि दुःखः डरै है। अर सुखकौं सर्व प्रकार चाहै है, यातँ मैं भी दुःखका हरनहारा, सुखका करनहारा ऐसा जो वांछित अर्थ है तिस ही कौं उपदेशौ हौं ।
भावार्थ-काहूके ऐसा भय होयगा कि श्री गुरु सुखकों छुडाय मोकं कष्ट साधन बतावेगै । वहुरि इस भयतें शास्त्र विर्षे अनादर कौं कहैं हैं, ऐसा भय मति करै । दुःख दूर करिनँका, सुख पावनैंका तेरा अभिप्राय है तिस ही प्रयोजन ली. हम तोकौं सांचा उपाय उपदे हैं। ___आगें सो उपदेशरूप वचन यद्यपि कदाचित् तोकों कड़वा भी लागै तो तू तिसितै डरे मति ऐसा कहै है१. विशिष्ट कहिए मु० १-११ २. विलै भया ज० पू० १.५ ३. आगे कहै हैं सो मु० २-२८ ४. ऐसा उपदेशका सूत्र कहै मु० २-१८
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