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________________ ४२ आत्मानुशासन ज्ञान- चारित्रसे युक्त साधुको संसारसे राग छोड़नेका उदाहरणद्वारा समथन कंष्टका कारण पुनः पुनः राग-द्वेषकी प्राप्ति मोक्षप्राप्तिके पूर्व प्राणी दुखी ही रहता है मोक्षप्राप्तिके उपायभूत रत्नत्रयका समर्थन मोक्षके इच्छुकको यह अभोग्य है यह भोग्य है ऐसे विकल्पके त्यागका अभ्यास करना चाहिये अविनाशी पद क्या है इसका स्पष्टीकरण प्रवृत्ति और निवृत्तिका स्वरूप कौन भावना भाने योग्य हैं और कौन नहीं तीन युगलोंमें आदिके तीन व्यवहारमें प्रयोजनीय अशुभ छूटनेपर पाप और दुःख स्वयं छूट जाते हैं तथा शुभकी परिसमाप्ति शुद्धमें होकर अन्तमें परमपद प्राप्त होता है आत्मा है और वह संसारके कारणोंसे वर्तमानमें बद्ध है, अन्तमें रत्नत्रय पाकर वह मुक्त होता है ममेदं भाव इतिके समान भवभ्रमणका कारण और उससे छूटने का उपाय पर वस्तुमें आसक्तिरूप अज्ञानको छोड़ विवेकका होना ही विवेकी जनोंकी कुशलता है बन्ध और मोक्षका क्रम योगीका स्वरूप निर्देश गुणयुक्त तपमें साधारणसी भी क्षति उपेक्षा करने योग्य नहीं जैसे घर में छिद्र होना योग्य नहीं वैसे ही यतिका गुप्ति आदि में असावधान रहना योग्य नहीं परदोष कथन हितकारी नहीं दोषदर्शी महात्माके पदको नहीं प्राप्त होता योगीको अपना पहलेका जीवन अज्ञानता पूर्ण प्रतीत होता है शरीर में भी स्पृहा रहित योगियोंका आशाबेलिको पुष्ट करना कैसे योग्य हो सकता है Jain Education International २३१ २३२ २३३ २३४ For Personal & Private Use Only २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २५२ २५३ जब शरीर ही आत्मासे जुदा है तो अन्य पदार्थ तो जुदे हैं ही मोक्षार्थी संतापके कारणरूप शरीरसे मोह छोड़कर परम सुखी हुए हैं २५४ अनादि कालीन मोहके त्यागीका ही परलोक विशुद्ध होता है। परमें मूर्छा रहित साधुके ऐसा कौन पदार्थ है जो सुखका साधन न बने २५६ २५५ २४८ २४९ २५० २५१ www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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