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________________ २१४ ठ१५ विषय सूची मात्र गृहस्थ योग्य उपचार करते हैं, फिर भी अप्रतीकार्य जानकर उपवासादि विधिसे उसे त्याग देते हैं अज्ञानीका सुख शिरके भार कंधेपर ले लेनेके समान है शरीरको प्रतीकारके अयोग्य देखकर उद्वेग नहीं करना ही प्रति'क्रिया है शरीर ग्रहणका नाम संसार, उसमें आसक्तिका त्याग करना ही मुक्ति है जो अपने खोटे आचरणसे आत्माको अपूज्य बना देता है उस शरीरको धिक्कार हो १०९ ज्ञानी शरीर, कर्म और आत्माको भिन्न-भिन्न जानता है २१०-२११ कषायादिकको न जीतना ही अज्ञता है २१२ उत्तम गुणोंके बाधक कषायोंको जीतनेके लिये प्रयत्न करो २१३ क्रोधादि और उपशान्त भावमें चूहे-बिल्लीके समान जाति विरोध है, उससे दोनों लोकोंकी हानि होती है कषायोंको जीतनेके लिये मात्सर्थ भावके त्यागकी शिक्षा क्रोधसे होनेवाली कार्य हानिका सोदाहरण समर्थन मानमें बाहुबलीको उदाहरण रूपमें उपस्थित करनेकी परम्परा है वर्तमानमें गुण रहित होकर भी अहंकारसे अभिभूत पाये जाते हैं अपनेसे उत्तरोत्तर अधिक गुणवाले होनेपर भी मान करते हैं २१९ थोड़ा भी छल विषके समान है इसकी सोदाहरण निन्दा मायासे भयभीत रहनेकी प्रेरणा । कपट व्यवहार स्वयंके छिपानेपर भी वह प्रगट हो जाता है २२२ लोभवश चमरमृगकी परवशता निकट संसारीको ही विषयविरक्ति आदि गुण प्राप्त होते हैं जिन्होंने आत्माके सारको जान लिया है वे ही क्लेश जालसे मुक्त होते हैं २२५ संसारसे विमुक्त जीव मुक्तिके भाजन कैसे नहीं होते, होते ही हैं २२६ रत्नत्रयधारीको ही संसारसे भयभीत होकर इन्द्रिय चोरोंसे बचना चाहिये २२७ पीछी आदि संयमके साधन हैं उनमें मोह करना व्यर्थ है २२८ धीर बुद्धि साधु आत्माकी प्राप्तिमें ही अपनेको कृतकृत्य मानता है २२९ ज्ञानके गर्ववश आशारूप शत्रुको अल्प गिनना योगग्य नहीं २३० २१६ २२० २२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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