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आत्मानुशासन
१७० १७१-१७३
राग-द्वेषको जीतनेके लिये मनको आगमाभ्यास में रमाओ आगमाभ्यास में मनको रमानेकी विधिका निर्देश ज्ञानभावना क्यों करनी चाहिये इसका निर्देश ज्ञान भावनाका फल केवलज्ञान ही है, अन्य नहीं
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शास्त्राभ्याससे भव्य और अभव्यकी दशा क्या होती है इसका निर्देश १७६ ध्यानका फल राग-द्वेषका परिहार
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मथानी के उदाहरण द्वारा संसार परिभ्रमणके कारणका निर्देश १७८ - १७९ तत्त्वज्ञानका अभ्यास ही मोक्षका कारण
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शुभ, अशुभ और दोनोंसे निवृत्त होनेका फल
ज्ञानअग्निके द्वारा संसारके बीज राग-द्वेषको जला देना चाहिये मोह और पुरातन फोड़े में कोई अन्तर नहीं
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सुबुद्धि जन मित्र तथा पुत्रादिके न होनेपर शोक नहीं करते हानिके होनेपर शोक नहीं करना सुखी होनेका उपाय सकल संन्यासका नाम ही सुख है, उससे विपरीतपनेका नाम दुःख है १८७ जन्म और मरण इन दोनोंमें अन्तर नहीं
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तप और श्रुतका फल राग-द्वेषको निवृत्ति है, लाभ पूजादि नहीं १८९ - १९० विषयाभिलाषा महान् अनर्थकी जनक
१९१-१९२
विषयविरक्ति ही अध्यात्मी होनेका उपाय
शत्रुके समान जानकर शरीरको क्षीण करनेकी शिक्षा
अनर्थ परम्पराका मूल कारण शरीर
जो शरीरको पोषते हैं, विषय सेवते हैं वे मानो विष खाकर जीना
चाहते हैं
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कष्ट है कि इस कालमें मुनि गाँवके पास रात्रि बिताते हैं संसारके कारण कुतपसे गृहस्थ वने रहना उत्तम है साधुका 'स्वार्थको भूलकर स्त्रीकी संगति करना महादुःखका मूल है १९९ शरीरमें अभेद बुद्धिका फल ही संसारमें भटकना है जन्म, जरा, मृत्युसे व्याप्त शरीरमें आस्था रखना आश्चर्यकारी है • शुचिर्भूत आत्मा शरीर के संयोगसे ही अशुचि हुआ है, धिक् है उसे • शरीर अशुचि है, मैं शुचि हूँ ऐसे भेदज्ञानसे शरीरका त्याग करना बड़े साहसका काम है
मुनि रोगके होनेपर खेद नहीं करते तथा अपना कार्य जानकर शरीरको त्याग देते हैं
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