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________________ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ विषय सूची चन्द्रमाके लांछनके समान एक भी दोष निन्दाका कारण होता है १४० दोषोंको आच्छादित करनेवाले गुरुकी अपेक्षा दोषदर्शी दुर्जन ही १४१ कठोर गुरूक्तियाँ भव्यकै मनको आह्लादित करनेवाली होती हैं- १४२ इस समय सच्चे धर्मोपदेष्टा तो दुर्लभ हैं ही, उसे कहने और सुनने वाले भी दुर्लभ हैं १४३ किसके द्वारा की गई निन्दा प्रीतिकर और किसके द्वारा की गई स्तुति अप्रीतिकर होती है इस बातका निर्देश ग्रहण किसे करना और त्यागना किसे इसका निर्णय कौन हितको और कौन अहितको करनेवाले होते हैं गुण-दोष और उनके कारणोंको जाननेवाला ही विद्वान् है बुद्धिमान् और निर्बुद्धि में सकारण अन्तरका निर्देश इस समय समीचीन आचरण करनेवाले विरल हैं वेषधारी साधुओंके संसर्गसे दूर रहनेकी शिक्षा साधु अप्रार्थ्य वृत्ति होता है, उसका याचना करना व्यर्थ है १५१ अविवेकी दीन और अभिमानीको देखे बिना ही परमाणु सबसे छोटा और आकाशको सबसे बड़ा कहता है १५२ तराजूके उदाहरणद्वारा याचक और अयाचकमें भेदका समर्थन १५३-१५४ धनीसे निर्धनपना क्यों श्रेष्ठ है इसका समर्थन मानधन आशारूपी खानको भर देता है १५६-१५७ आहार ग्रहणमें लज्जाशील साधु परिग्रहको ग्रहण कैसे कर सकता है १५८ साधुका रागद्वेषके वश होना कलिका ही प्रभाव है अपनेको भूल कर्मके फलमें सन्तुष्ट होना योग्य नहीं तपश्चर्याके फलस्वरूप लौकिक अल्प फलमें क्यों सन्तुष्ट होता है। साधुका जीवन दैवकी बलवत्तासे परे होता है दैवका वश कहाँ चलता है और कहाँ नहीं चलता कौन साधु स्तुतिका और कौन साधु निन्दाके पात्र है तप छोड़ विषयमें फँसना आश्चर्यकारी है तपसे च्युत होनेवाला साधु बालकसे भी गया बीता है शद्धिके कारणरूप तपको अन्य पुरुष मैला कर देते हैं। संयमको छोड़नेवाले साधुका अमृत पीकर उसे वमन करनेके समान है बाह्य शत्रुके समान राग-द्वेष अन्तरंग शत्रुको भी जीतो १५५ १६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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