SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय सूची मंगलाचरणपूर्वक आत्मानुशासन के कथनकी प्रतिज्ञा पापहारी सुखकारी शिक्षा देने की सूचना उक्त शिक्षासे भयभीत न होने की प्रेरणा यथार्थ उपदेशकों की दुर्लभता गणी वक्ताका स्वरूप अधिकारी श्रोताका स्वरूप पाप-पुण्य के त्यागपूर्वक धर्माचरणकी प्रेरणा धर्मादिमें उत्तरोत्तर कारणता के निर्देशपूर्वक आप्तकी उपासना की शिक्षा मूढतारहित सम्यग्दर्शन और उसके भेद-प्रभेद सम्यग्दर्शनके दश भेदोंके नामों के साथ उनका स्वरूप कथन सम्यग्दर्शनके कारण शमादिक्की पूज्यताका निर्देश इष्ट प्रयोजनकी सिद्धिके लिये सुकुमार क्रिया करनेकी सूचना धर्म जीवनका आवश्यक अंग है इसकी सिद्धि सर्वत्र धर्मकी उपादेयता धर्माचरण ही सुखप्रद, पाप कार्य नहीं धर्म और यश आदि प्रयोजनको ध्यानमें रखकर परनिन्दा आदि करनेका निषेध सोदाहरण पुण्य करनेकी प्रेरणा इन्द्रके उदाहरणद्वारा जीवनमें देवकी मुख्यताकी सिद्धि पृथिवी आदिके उदाहरणद्वारा आप्त ही निःस्वार्थं जीवनयापन करनेवाले सत्पुरुष हैं उसका उल्लेख इन्द्रियसुखकी अनुपादेयताकी सकारण सिद्धि परिव्राजकके लांडू के उदाहरणको जानकर विषयसेवन से हँसीका पात्र बनना उचित नहीं Jain Education International १ २२ पुण्य और पापमें सर्वत्र आत्मपरिणाम ही मुख्य कारण हैं २३ धर्मको भूलना वृक्षकी जड़ उखाड़कर उसके फल भोगने के समान है २४ धर्मकी उपयोगिताके साथ उसके बिना होनेवाला दुष्परिणाम २५-२६ धर्मको भूलना ही पापका कारण है, सुखानुभव नहीं २७ २८-२९ For Personal & Private Use Only vr mp ५-६ ७ V ९ १०. ११-१५ १५ १६-१७ १८-२१ ३० ३१ ३२ ३३ ३४-३९ ४० www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy