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________________ ३४ आत्मानुशासन अनुवाद मिश्रित प्राचीन हिन्दी भाषाका सुन्दर उदाहरण है, जिसमें राजस्थानके ढूंढार प्रदेशकी ढूंढारी भाषा, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का पुट है । आज भी देशके कोने-कोनेमें स्थित जैन मंदिरोंमें नियमित रूप से चलनेवाले प्रवचन, स्वाध्याय एवं तत्त्व चर्चाओं आदिमें इस भाषाके शास्त्र भी बड़ी रुचिके साथ पढ़े जाते हैं । इस दृष्टिसे इस भाषाका अपना माधुर्य और वैशिष्टय है । पं० टोडरमलजीके लेखनका प्रमुख उद्देश्य उच्च आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञानको प्रचलित देश-भाषामें सरल ढंगसे प्रस्तुत करना था । गहरेसे गहरे तथ्योंको भी बड़ी ही सहज रीतिमें व्यक्त करनेकी उनकी विशेषता है। क्योंकि किसी कविके अन्तर्मनको पूरी तरह समझकर उसकी भावग्राही व्याख्या करना भी अपने-आपमें काफी कठिन कार्य है, किन्तु अद्भुत प्रतिभा और विविध शास्त्रोंके तलस्पर्शी ज्ञानके धनी पं० टोडरमलजी इस गुरुतर दायित्वके निर्वाहमें खरे उतरे तथा मूल रचयिताके परे भावोंको समीचीन रूपमें प्रस्तुतकर इस ग्रन्थमें अन्तर्निहित विशेषताओंको पूरी तरह प्रकाशन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थके मार्गदर्शन तथा सम्पादनका प्रमुख कार्य जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री द्वारा सम्पन्न हुआ है। सम्पादकीय वक्तव्यमें आपने जैन तत्त्वज्ञानसे सम्बन्धित जिन विषयोंपर जिस गहनता, प्रामाणिकता एवं आधिकारिक रूपमें लिखा, उसका अपना स्वतन्त्र महत्त्व है । वस्तुतः आदरणीय पण्डितजीका सम्पूर्ण जीवन ही एक जीवट व्यक्तित्वके रूपमें हमारे सामने है। जैन धर्म-दर्शन एवं सिद्धान्तसे सम्बन्धित ग्रन्थोंके अध्ययन, मनन, चिन्तन, सम्पादन, अनुवाद, स्वतंत्र लेखन तथा प्रवचन आदि प्रवृत्तियोंसे उनका जीवन ओत‘प्रोत है। इन्हीं प्रवृत्तियोंके द्वारा जैन धर्म-दर्शन और उनके साहित्यका संवर्धन, संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार ही सम्पूर्ण जीवनका एकमात्र ध्येय बनाकर चलनेवाले ऐसे विद्वान् विरले होते हैं। मुझे श्रद्धेय पण्डितजी जैसे गरिमामण्डित वयोवृद्ध विद्वान्के सानिध्य में उन्हींके निर्देशसे इस ग्रन्थके सम्पादनमें सहयोग करने एवं बहुत कुछ सीखने-समझनेका जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, इसे मैं परम गौरवकी वस्तु मानता हुआ आनन्दका अनुभव कर रहा हूँ। . __डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी रक्षाबन्धन पर्व दिनांक २३-८-१९८३. -जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी अध्यक्ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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