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दो शब्द
- भारतीय सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, तत्त्वज्ञान एवं विज्ञान जैसे विविध विषयोंकी बहुमूल्य सामग्री प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, देशी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओंके विपुल जैन वाङ्मयमें उपलब्ध है। किन्तु इस दिशामें अनुसंधान, प्रकाशन, अन्तरशास्त्रीय अध्ययन एवं सम्पादन की जितनी अपेक्षा है उतना कार्य हो नहीं पा रहा है। इसके लिए आवश्यक है अपने ज्ञानके प्रतीकोंके युगानुकूल सहज एवं व्यावहारिक प्रस्तुति में सक्षम उत्क्रान्त प्रतिभाओं की। हमारे महान् जैनाचार्योंने जीवनके अन्तः और बाह्य इन दोनों पहलुओंको खूब बारीकीसे देखा, समझा तथा अनुभव किया और पर-कल्याणकी भावनासे ओतप्रोत हो वाणी एवं लेखनी द्वारा प्रकट किया। प्रस्तुत कृतिके मूल ग्रन्थकार भदन्त गुणभद्र (नवीं शती) भी इसी परम्पराके आचार्योंमें से एक थे।
प्रस्तुत ग्रन्थ आत्मतत्त्वकी श्रद्धा करानेवाला अनुपम काव्य ग्रन्थ है। वैसे प्रत्येक साहित्य बाह्यरूपमें अपने देश और कालकी सीमासे किसी न किसी रूपमें बँधा होता है। किन्तु उसके अन्तर्जगतमें सामञ्जस्य सर्वकल्याण, आध्यात्मिक-विकास तथा सत्-चित् एवं आनन्दके जो स्थायी तत्त्व निहित रहते हैं वे देश तथा कालातीत होते हैं। सुभाषितमय इस सम्पूर्ण ग्रन्थमें भी काव्योचित विविध दृष्टान्तों, अलंकारों एवं छन्दोंके माध्यमसे जीवन-उत्कर्षके लिए मर्मकी बात सहजरूपमें कही गई है। इस ग्रन्थका प्रत्येक श्लोक अपने आपमें स्वतन्त्र काव्य भी है। इस कृति की यह भी विशेषता है कि अध्यात्म-विद्यासे सम्बन्धित प्रायः सभी विषयों को प्रमुख आधार बनाकर सुभाषितों द्वारा सहृदयोंके कोमलतम अन्तस को बड़ी सूक्ष्मता एवं कलात्मकतासे छनेका सफल प्रयास इस ग्रन्थमें हुआ है । मानवोचित गुणोंका पाथेय जुटाने, उसे दिग्भ्रमित होनेसे बचाने तथा सही मार्गदर्शन करते रहनेकी प्रशस्त पृष्ठभूमिके सूत्र इस ग्रन्थके प्राण हैं। जीवन-उत्कर्षकी ये अनुभूत प्रणालियाँ मुमुक्षु जीवको शान्ति
और आनन्द प्रदान करती हैं। यही कारण है कि यह ग्रन्थ आरम्भसे ही सभीके आकर्षणको केन्द्र रहा है । इसी महत्तासे प्रभावित हो कुछ आचार्यों एवं विद्वानोंने इस ग्रन्थ पर व्याख्या लिखकर अपनी लेखनीको सार्थक बनाया है।
इस ग्रन्थकी विविध विशेषताओंसे प्रभावित हो पण्डित टोडरमलजी (१८वीं शती)ने देशभाषामें इसका सरल अनुवाद किया। यह
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