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________________ प्रस्तावना - (२) यह तो आत्मानुशासन पर काम करनेवाले सभी विद्वानोंने स्वीकर किया है कि इस समय हिन्दीमें जितनी भी टीकाएं प्रचलित हैं वे सब टीकाएँ आ० क० पं० टोडरमल्लजी द्वारा लिखित टीकाके प्रति आभारी हैं। इसके प्रकाशनके ये दो कारण तो हैं ही। साथ ही वह सरस और ग्रन्थके हार्दको स्पष्ट करनेवाली भी है। इसमें प्रायः ऐसा एक भी पद्य नहीं है जिसका अर्थ लिखनेके बाद भावार्थ द्वारा उसे स्पष्ट नहीं किया गया हो । मात्र २२० वे पद्यके तीसरे चरणका अर्थ लिखनेमें पण्डित जी मौन रहे आये। उसे उन्होंने स्पर्श नहीं किया। सम्भवतः उस समय उनके विरुद्ध जो वातावरण तैयार हो रहा था उसकी इससे सूचना मिलती जान पड़ती है। अपने कालके आगमधर विद्वानोंमें पं० जी सर्वोपरि हैं। जिन मनीषियोंने इन्हें आचार्यकल्प पदसे अलंकृत किया है, वह सोच समझकर ही किया है। यह इन्हींका काम है कि इन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार क्षपणासार जैसे गुरुतर ग्रन्थोंको पठनीय बनाया । जैनधर्मके हार्दको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसे अपूर्व ग्रन्थकी रचना की। मुलतानके जैनबन्धुओंका समाधान करनेके अभिप्रायसे लोकमें 'रहस्यपूर्ण चिट्ठीके' नामसे प्रसिद्ध चिट्ठी लिखी। त्रिलोकसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय और प्रस्तुत ग्रन्थ आत्मानुशासनकी सुन्दर, सरस और आगमानुकूल टीकाएँ लिखीं। जैसे लोकमें यह प्रसिद्धि है कि भगवद् वाणीके हार्दको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे यदि भगवान् कुन्दकुन्दने समयसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थकी रचना न की होती तो आज पूरा विश्व गाढ़ अज्ञानान्धकारमें डूबा होता। वैसे ही यह कहना भी उपयुक्त प्रतीत होता है कि यदि जयपुरने आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लको जन्म न दिया होता तो इस कालमें सिद्धान्तके रहस्यको जाननेवाले विद्वानोंका अभाव ही बना रहता। उनके द्वारा किये गये कार्योंको पूर्वाचार्यों द्वारा किये गये कार्योंसे कम नहीं आंका जा सकता। आगममें यह वचन आया है'द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यम्' उसके हार्द को इस कालमें जिस महानुभावने उद्घाटित किया है वे और कोई नहीं, पंडितप्रवर टोडरमल्लजी ही हैं। उसके लिये हृदयके कपाटको खोलकर मोक्षमार्गप्रकाशकके ७ वें अध्यायका स्वाध्याय करना उतना ही आवश्यक है जितना कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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