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आत्मानुशासन
अनुसार तो इनके प्रमुख गुरु आचार्य जिनसेन ही थे । इतना अवश्य है कि भदन्त गुणभद्रने आचार्य दशरथको भी अपना गुरु माना है' । इनका जन्मस्थान दक्षिण आरकट जिलेका 'तिरुम रुडकुण्डम' माना जाता है ।
लगता है कि आचार्य जिनसेनके कालमें ही ये साहित्य साधना में लग गये थे । आचार्य जिनसेनके अधूरे रहे महापुराणको इन्होंने उनके बाद शक सम्वत् ८२० में सम्पन्न किया है । ऐसा उत्तर पुराणकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है, इसलिए बहुत सम्भव है कि उसके बाद ही इन्होंने आत्मानुशासनको मूर्तरूप दिया हो । इनकी तीसरी रचना जिनदत्तचरित काव्य है । इन तीन अतिरिक्त इनकी और कोई रचना हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता । आत्मानुशासनकी कथ्यवस्तुके अवलोकनसे ही यह ज्ञात होता है कि ये साहित्य साधना के साथ ज्ञानाराधना में भी सतत तल्लीन रहते थे । अन्यथा उनके मुखसे ऐसे उद्गार कभी प्रकट नहीं होते कि 'आत्मा ज्ञानस्वभाव है और स्वभावकी प्राप्ति ही मोक्ष है । जिसे मोक्षको प्राप्त करने की इच्छा है, उसे ज्ञानभावना करनी चाहिये (१७४) ज्ञानभावनाका फलज्ञान ही है । आदि ।
भाषा टीकाकार
इस ग्रंथपर दो टीकाऐं हिन्दीमें लिखी गई हैं और एक टीका संस्कृतमें । संस्कृत टीका पंञ्जिकाके रूपमें लिखी गई है । हिन्दी टीकाओं में स्व० श्री पं० बंशीधर शा० सोलापुर जी द्वारा लिखित टीका हमारे सामने नहीं है । मात्र श्री पं० बालचन्दजी द्वारा लिखी गई और जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर द्वारा प्रकाशित हुई टीका हमारे सामने अवश्य है । यद्यपि यह सर्वांगपूर्ण हैं, फिर भी हमने जिन दो कारणोंसे आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजो द्वारा लिखित टीकाको वर्णी संस्थानसे प्रकाशित करनेका निर्णय लिया वे हैं
(१) ढूंढारी बोली भी हिन्दी भाषाका एक उपभेद है । जैसे हम प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओंकी सुरक्षाकी ओर पूरा ध्यान देते हैं वैसे ही हमें विविध प्रदेशों में बोली जानेवाली इन हिन्दी भाषाके उपभेदोंकी भी सुरक्षा करनी चाहिये । और उनकी सुरक्षाका सर्वोत्तम उपाय है उन बोलियोंमें लिखे गये साहित्यकी सुरक्षा करना तथा प्रकाश में लाना ।
१. तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ३, पृ० ८ । २. वही पृ० ८ ।
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