________________
प्रस्तावना
हमें प्रसन्नता है कि वर्णी संस्थानसे इसका प्रकाशन हो रहा है । इसके सम्पादनमें डॉ. फलचन्द जैन प्रेमी जैनदर्शनविभागाध्यक्ष प्राध्यापक सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी और प्रिय बन्धु पं० हीरालाल जी गंगवाल बी० ए०, एल० एल० बी० इन्दौरका यथासम्भव पूरा सहयोग मिला है इसके लिये हम उक्त दोनों विद्वानोंके हृदयसे आभारी हैं । इसी प्रकार ब्र० नेमिनाथका भी इसमें भरपूर सहयोग मिला है।
मेरा स्वास्थ्य अब उतना अच्छा नहीं रहता। उम्रकी दृष्टिसे भी वैसाख वदी ४ को ही मैं ८३वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। फिर भी अपने मित्रोंको और खासकर प्रो० जमुनालालजी इन्दौरको मैंने स्वयं इसकी प्रस्तावना लिख देनेकी स्वीकृति दी थी। तथा मान्य पं० नेमिचन्द जी पाटनी जयपुरने मुझे वर्णी संस्थानसे इस ग्रन्थके प्रकाचित करनेकी छूट दी थी। इतना ही नहीं इसके प्रकाशनमें भाई श्री पं० राजमल जी भोपालका यथासम्भव सहयोग मिला है। इसके लिये मैं इन सबका भी हृदयसे आभारी हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि कतिपय आवश्यक विषयोंको ध्यानमें रखकर मैंने आगम और कालक्रमके अनुसार सन्मार्गमें होनेवाले परिवर्तनको ध्यानमें रखकर संक्षेपमें इसकी प्रस्तावना लिखी है। आशा है विद्वज्जन उसे उसी दृष्टि से पढ़ेंगे । विज्ञेषु किमधिकम् ।
१३. ग्रन्थकर्ता आत्मानुशासन भदन्त गुणभद्र सूरिकी अमर कृति है। इसमें कुल २७० पद्य हैं। अन्तिम पद्य श्री नाभिसूनु ऋषभ जिनका अन्तिम मंगलाचरणके रूपमें आया है। किन्तु संस्कृत टीकाकारने जिस प्रतिपरसे इस ग्रन्थकी टीका लिखी है, सम्भवतः उस प्रतिमें इस पद्यके नहीं रहनेसे इसपर संस्कृत टीका नहीं लिखी जा सकी। यही कारण है कि वर्तमानमें इसमें कूल २६९ पद्य माने जाते हैं।
२६९वें पद्यमें भदन्त गुणभद्र ने अपने नामका उल्लेख कर स्वयंको आचार्य जिनसेनके चरणोंके स्मरणके आधीन चित्तवाला सूचित किया है। लगता है कि इनकी शिक्षा दीक्षा आचार्य जिनसेनके सानिध्यमें ही हुई होगी। क्योंकि यह बात इसलिये भी ठीक प्रतीत होती है, कारण कि आ० जिनसेनके अवशिष्ट रहे महापुराणके कार्यको इन्होंने ही सम्पन्न किया है।
वैसे पं० परमानन्दजीने इन्हें आचार्य जिनसेनके सधर्मा (गुरुभाई) और दशरथ गुरुके शिष्य लिखा है। किन्तु डॉ० नेमिचन्दजी शास्त्रीके १. जैन धर्मका प्राचीन इतिहास द्वि० भा०, पृ० १८२ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org