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________________ आत्मानुशासन है या ज्ञानमार्गके सन्मुख है। इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शनको प्रमुखता देनेका यही कारण है, ज्ञान, चारित्र और तप उसके अनुषंगी है। उसके बिना ये सब इष्टफलको नहीं फलते । इसका अर्थ यह नहीं कि इनकी उपेक्षा की जाय। इतना अवश्य है कि ज्ञानमार्गके सन्मुख हुए प्राणीकी अज्ञानभावके साथ विषय-कषायमें अरुचि होनी ही चाहिये । विषय-कषायमें अरुचिका अर्थ है स्त्री, भोजन, भाजन, मकान आदि जो बाह्य पदार्थ हैं उनमें अपने चित्तको नहीं रमाना। इसमें जो पद-पदपर स्त्रियोंमें दोषदर्शनका निर्देश दृष्टिगोचर होता है उसका प्रयोजन स्त्री निन्दासे नहीं है। इसके कर्ता भदन्त गुणभद्रसूरि वीतराग वनवासी सन्त हैं। वे भला ऐसा क्यों करते । उनके सामने तो साधुओंकी किसी प्रकार साधुता बनी रहे, वे रुद्रादिकी तरह उन्मार्गगामी न हो जायें, मात्र इस प्रयोजनसे इस शास्त्रकी रचना की है। इसलिये इसे स्त्री निन्दाकी दृष्टि से नहीं देखना चाहिये । जान पड़ता है कि शिथिलाचारमें पगे हुए साधु इससे कैसे विरक्त हों इस महान् प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ही उन्होंने हितबुद्धिसे लघुकाय इस ग्रन्थकी रचना की है। यह अनेक छन्दोंमें लिखा गया है। उनका विवरण इस प्रकार हैक्रम छन्दनाम संख्या क्रम छन्दनाम . संख्या अनुष्टुभ् पृथ्वी शार्दूलविक्रीडित र घरा वसन्ततिलका मन्दाक्रान्ता आर्या | २१ | ११ वंशस्थ शिखरिणी उपेन्द्रवज्रा हरिणी | १४ १३ वैतालीय मालिनी रथोद्धता गीति कुल छन्द २७० हैं। इनके अतिरिक्त भाषा टीकामें पं० जी ने अन्य प्राकृत ग्रंथोंसे प्रकृत विषयकी पुष्टिमें ३ गाथाएं भी उद्धृत की हैं। इस ग्रंथके लिखते समय यह बहुत सम्भव है कि भर्तृहरिका शतकत्रय ग्रंथकारके सामने रहा हो। तुलनाके लिये देखिये जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुरसे प्रकाशित आत्मानुशासन । और भी बहुत सी बातें हैं जिनके कारण उत्कृष्ट काव्यमें इसकी परिगणना की जाती है। Tavs mx o wa I v w mm on or ano Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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