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प्रस्तावना
नपुंसक है। वह विषयका उपभोग क्या करेगा। उसमें यह सामर्थ्य ही नहीं (१३७)।
यद्यपि हम यह जानते हैं कि प्राचीन कालमें भी ऐसे पण्डित और साधु होते रहे हैं जिन्होंने अपने मलिन चारित्र द्वारा निर्मल जैनमार्गको मलिन करनेमें कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी'। मूलाचारमें ऐसे साधुओंको पाँच प्रकारका बतलाया गया है। उनके नाम हैं—पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपगतसंज्ञ और मृगचरित्र । वहाँ इन्हें संघ बाह्य कह कर इनकी वन्दना करनेका भी निषेध किया गया है। लिंगपाहडमें भी आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसे मुनियोंको मुनिपदके अयोग्य कहा है । अतः समग्र ग्रन्थका सार यह है कि साधु जैसे ऊँचे पदको ग्रहण कर हर प्रकारसे उसकी संम्हाल करनी चाहिये। बालक तो पालना आदिसे गिरनेसे डरता है, फिर साधु संयम जैसे महान् पदका अधिकारी होकर भी उससे गिरनेमें भय न करे यह आश्चर्यकी बात है ।
१२. अन्तिम निवेदन यह लघुकाय ग्रन्थ होनेपर भी विषयकी दृष्टिसे सर्वांगपूर्ण है। इसमें न केवल मोक्षमार्गकी प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है अपि तु 'बिन जानेत दोष गणनको कैसे तजिये गहिये।' इस नीतिके अनुसार इसमें बन्धमार्ग और उसके फलको भी दिखलाया गया है । जीवका पराश्रित परिणाम ही बन्धमार्ग है और जीवका स्वाश्रित परिणाम ही मोक्षमार्ग है यह वस्तुस्थिति है । ऐसा होते हुए भी चाहे बन्धमार्ग हो या मोक्षमार्ग हो, दोनोंमें बाह्य और इतर सामग्रीकी समग्रता रहती ही है। उसके होनेमें बाधा नहीं आती, क्योंकि प्रत्येक समयमें जो भी पर्याय होती है वह स्वभावदृष्टि से स्वयं होकर भी कार्य-कारणकी दृष्टिसे स्व और परके निमित्तसे ही होती है यह नियम है। जिनागम भी यही है। फरक मात्र दृष्टिका है। परसे मेरा भला-बुरा होता है यदि ऐसी दृष्टिवाला है तो वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है और यदि मेरा भला-बुरा करनेवाला मैं स्वयं हूँ, पर तो निमित्तमात्र है ऐसी दृष्टिवाला है तो वह या तो ज्ञानी
१. पण्डितै भ्रष्टचारित्रैः वठरैश्च तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ २. मूलाचार षडावश्यक अधिकार गा० ९५ । ३. देखो गाथा १४,१७,२० आदि । ४. आत्मानुशासन प० १६६ ।
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