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________________ आत्मानुशासन शरीर और स्त्री दोनों एक डग भी निश्चयसे तेरे साथ जानेवाले नहीं हैं। इनमें अनुराग कर तू धोखा खा रहा है। इस शरीरसे जो तूने गाढ़ स्नेह कर रखा है और इस कारण विषयोंमें अपनेको उलझा रखा है उसे छोड़, इसीमें तेरा कल्याण है (१९९)। हम यह जानते हैं कि सर्वथा भिन्न दो पदार्थ मिलकर एक नहीं हो सकते । फिर भी तू पूर्वोपार्जित किसी कर्मके अधीन होकर इन शरीर आदि पर पदार्थोंमें अभेद बुद्धि करके तन्मय हो रहा है। पर वास्तवमें वे तुझ स्वरूप हैं नहीं। फिर भी तु उनमें ममत्वबुद्धि करके इस संसाररूपी वनमें छेदे-भेदे जानेकी चिन्ता न करके भटक रहा है (२००) । विचार कर यदि तू देखेगा तो यह निश्चय करनेमें देर नहीं लगेगी कि ये माता-पिता और कुटुम्बीजन तेरे कोई नहीं हैं। इनका सम्बन्ध शरीर तक ही सीमित है। अतः शरीर सहित इनमें अनुराग करनेसे क्या लाभ ? उसे छोड़। परमार्थसे देखा जाय तो तू कर्मादि पर वस्तुके सम्बन्धसे रहित होनेके कारण शुद्ध है, ज्ञेयरूप समस्त विषयोंका ज्ञाता है तथा रूप-रसादिसे रहित ज्ञानमूर्ति है। यह तेरा सहज स्वरूप है। फिर भी इस शरीरमें अनुरागवश तू इस द्वारा अपवित्र किया जा रहा है । सो ठीक ही है, कारण कि यह अपवित्र जड़ शरीर लोकमें ऐसी कौन सी वस्तु है जिसे अपवित्र नहीं करता (२०२), अतः इस शरीरके स्वभावको हेय जानकर उसमें साहसपूर्वक मूर्छाको छोड़ देना यही तेरा प्रधान कर्तव्य है । यह मोह बीजके समान है। बीजसे ही वृक्षकी जड़ और अंकुर उत्पन्न होते हैं। मोहकाभी वही काम है। राग-द्वेषकी उत्पत्तिका मूल कारण यह मोह ही है। एकबार पर पदार्थों में अहंबुद्धिका त्याग हो जानेपर राग-द्वेष स्वयं काल पा कर विलयको प्राप्त हो जाते हैं (१८१) । इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । उनमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ सबसे प्रबल हैं । कदाचित् शेष इन्द्रियोंके विषयोंसे यह विरक्त भी हो जाय, पर इन दो इन्द्रियोंके विषयसे विरक्त होना आसान नहीं है। हमने देखा है कि साधु इष्ट और गरिष्ठ भोजन लेता है तो भी वह उतना अपवादका पात्र नहीं होता जितना कि स्पर्शनजन्य दोषके कारण उसे न केवल अपवादका पात्र होना पड़ता है, अपितु लोकमें उसकी प्रताड़नां भी की जाती है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमें स्त्रीके दोष दिखा कर साधुको किसी भी प्रकारसे स्त्री सम्पर्कसे दूर रहनेकी शिक्षा पद-पदपर दी गई है। और कहा गया है कि मन तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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