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प्रस्तावना
नहीं होता, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु जो दर्शनभ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते ॥३॥
इसी बातको भावार्थमें स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं-जैसे वृक्षकी शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जानेपर शाखा आदि कैसे होंगे ? इसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ॥३॥
यह सब शास्त्रोंका निचोड़ है। जीवनमें जिनागमके अनुसार अनेक प्रकारके जीवाजीवादि पदार्थोंके सम्यक् निर्णय पूर्वक हेय-उपादेयका जानना ही सम्यग्दृष्टिका लक्षण है। इसके होनेपर व्रत, संयम नियमका आचरण करना ही इष्ट फलको देनेवाला होता है, अन्यथा वे न होनेके समान है, क्योंकि केवल उनके होनेसे संसारका छेद नहीं होता।
इस पूरे कथनका सार यह है कि कदाचित् दूसरेकी बलजवरीसे पाँच मूलगुणों और रात्रि भोजन त्या गरूप व्रतमें दोष लग जाय या क्वचित् कदाचित् उपकरण और शरीरके संस्कार आदिका परिणाम हो जाय या कदाचित् किसी साधुके उत्तरगुणोंमें विराधना हो जाय तो भी उसके द्रव्यलिंगकी अपेक्षा इस प्रकारकी विविधता होनेपर भी वह साधुपदसे च्युत नहीं होता । ऐसा होनेपर भी उसके संयमस्थानोंसे सर्वथा पतन नहीं होता। जघन्यादिके भेदसे उसके संयमस्थान बने रहते हैं। यही कारण है कि आगममें ऐसे मुनियोंको भी स्वीकार कर उनकी गुरु पदपर प्रतिष्ठा की गई है। स्वपक्षके समर्थनमें यह दो आचार्योंका अभिप्राय है जो अनुकरणीय है।
११. मुनिपदके अयोग्य आचारका निषेध किन्तु लोकमें ऐसे मुनियोंकी कमी नहीं जो गुरुपर्व क्रमसे प्राप्त आगमकी अवहेलना कर उत्सूत्र आचरण करनेमें हिचकिचाहटका अनुभव नहीं करते । ऐसे मुनियोंको ध्यानमें रखकर ग्रन्थकारने ये उद्गार प्रकट किये हैं कि ग्रहण किये गये तपको स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा यदि लूट लिया जाता है तो जन्म परम्पराको बढ़ानेवाले उस तपकी अपेक्षा गृहस्थ होकर जीवन यापन करना ही श्रेष्ठ है (१९८) । वे इतना ही कह कर नहीं रह जाते । वे पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि साधो ! यह
१. सूत्रपाहुड गा० ५ । २. तत्त्वार्थवार्तिक अ० ९ सू० ४७ ।
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