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________________ २४ आत्मानुशासन इसके कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि 'यद्यपि निश्चयनयकी अपेक्षा गुणहीनोंमें उक्त संज्ञाकी प्रवृत्ति नहीं होती, परन्तु संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा निग्रन्थके समस्त भेदोंका उसमें संग्रह हो जाता है । इसका विशेष खुलासा करते हुए वहाँ पुनः लिखा है कि बात यह है कि उक्त पुलाक, वकुश और कुशील इनमें वस्त्र, आभूषण और आयुध आदि नहीं पाये जाते । मात्र सम्यग्दर्शन और निर्ग्रन्थ रूपकी समानता देखकर ही उन्हें निर्ग्रन्थ स्वीकर किया गया है । शंका- इस पर पुनः शंका हुई कि जिन्होंने व्रतोंको भंग किया है ऐसे व्यक्तियोंमें भी यदि निर्ग्रन्थ शब्दका प्रयोग करते हैं तो श्रावकोंको भी निर्ग्रन्थ कहना चाहिए ? समाधान - श्रावकों में निर्ग्रन्थ रूपका अभाव है, इस कारण उनमें निर्ग्रन्थ शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती । हमें तो निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है । शंका- यदि आपको निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है तो अन्य जो उस रूपवाले हैं उनमें की प्राप्ति होती है ? समाधान — नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें निर्ग्रन्थ नही माना जा सकता । किन्तु जिनमें सम्यग्दर्शनके साथ नग्नता दिखाई देती है उनमें निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित है । केवल नग्नता देखकर निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित नहीं । श्लोकवार्तिककारका भी यही अभिप्राय है । 1 इन दोनों समर्थ आचार्यों का यह अभिप्राय उस प्रकाशस्तम्भके समान है जो विशाल और गहरे समुद्र में प्रकाश और मार्गदर्शन दोनोंका काम करता है । इस समय मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका सबके लिए इस मंगलमय अभिप्रायके अनुसार चलनेकी बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इस अभिप्रायके मूलमें सम्यग्दर्शन मुख्य है । वह आत्मधर्मका आधार स्तम्भ है। इसमें यही तो कहा गया है कि क्वचित् कदाचित् बाह्य चारित्रमें परिस्थिति वश यदि किसी प्रकार की कमी आ भी जाय तो उतनी हानि नहीं, जितनी कि सम्यग्दर्शनसे च्युत होनेपर इस जीवको उठानी पड़ती है । इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनप्राभृतमें कहते हैं दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झति ॥३॥ इसका अर्थ करते हुए पण्डितप्रवर जयचन्दजी छावड़ा लिखते हैंजो पुरुष दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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