________________
प्रस्तावना
मौलिक है और पुराना भी। ग्रन्थकारने तो इस विषयकी विशेष चर्चा नहीं की। मात्र इतना ही लिखा है कि जैसे मगगण हिंस्र प्राणियोंके भयवश रात्रिमें नगरके समीप आ जाते हैं वैसे ही इस कालमें खेद है कि मुनिजन भी भयवश रात्रिमें नगरके समीप आ जाते हैं।' किन्तु इस विषयकी विशेष चर्चा सोमदेवसूरि और पं० आशाधरजीने विशेषरूपसे की है। ग्यारहवीं शताब्दिके विद्वान् सोमदेवसरि लिखते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी लेपादिसे युक्त जितप्रतिमा पूजी जाती है वैसे ही पूर्वकालके मुनियोंकी छाया मानकर वर्तमानकालके मुनि पूज्य हैं। मुनियोंको मात्र भोजन ही तो देना है, इसमें वे सन्त हैं कि असन्त इसकी क्या परीक्षा करनी ।२ १३ वीं शताब्दिके विद्वान् पं० आशाधरजी भी इसी मतके जान पड़ते हैं। वे भी इसी बातका समर्थन करते हए लिखते हैं कि 'जिस प्रकार प्रतिमाओंमें जिनदेवकी स्थापना की जाती है उसी प्रकार पूर्वकालीन मुनियोंकी इस कालके मुनियोंमें स्थापनाकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । अधिक खोद-विनोद करनेमें कोई लाभ नहीं।3।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मुनियोंके आचार सम्बन्धी यह प्रश्न उत्तरोत्तर जटिल होता गया है। वर्तमानमें जो मुनि हैं उन्हें हम मुनि न माने और मनमें वर्तमान मुनियोंमें पिछले मुनियोंकी स्थापनाकर बाह्यमें उनकी पूजा करें, आहार दें, उनका उपदेश सुनें ऐसा करना कहाँ तक उचित है ? इस विषयपर समर्थ आचार्योंके वचनोंसे कुछ प्रकाश पड़ता है या नहीं यह हमें देखना है।
तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार निर्ग्रन्थोंके उत्तर भेदों पर विशद प्रकाश डालते हुए मूलगुण आदिकी अपेक्षा कमीवाले मुनियोंके विषयमें तत्त्वार्थवातिकमें जो कुछ कहा गया है उसे यहाँ हम शंका-समाधानके रूपमें अविकल दे देना चाहते हैं । यथा__ शंका-जैसे गृहस्थ चारित्रके भेदसे निर्ग्रन्थ नहीं कहलाता वैसे ही पुलाकादिकमें भी चारित्रका भेद होनेसे निर्ग्रन्थपना नहीं बन सकता ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जैसे चारित्र और अध्ययन आदिका भेद होनेपर भी जातिसे वे सब ब्राह्मण कहलाते हैं वैसे ही पुलाकादिक भी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। १. इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः ।
वनाद्विशन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः ॥१९७।। २. यशस्तिलकचम्पू, उत्तरखण्ड, ४०५ । ३. सागारधर्मामृत अ० २ श्लो० ६४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org