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आत्मानुशासन परमावगाढ, सम्यग्दर्शन मुख्यतया केवलीके माना गया है सो वे तो श्रुतके जनक ही हैं। जिससे यह सहज ही ध्वनित होता है कि जो श्र तके अध्ययन, मननपूर्वक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है वही उसका समग्रभावसे उपदेष्टा हो सकता है। अब रहे सम्यग्दर्शनके शेष आठ भेद सो उनकी प्राप्तिके मूलमें भी किसी न किसी रूपमें श्रुतके अभ्यासकी सर्वोपरिता स्वीकार की गई है। वह भी स्वयं नहीं, किन्तु पूरी तरह आम्नायके ज्ञाता गुरुकी सन्निधिपूर्वक ही स्वीकार की गई है। समग्र आगमपर दृष्टिपात करनेसे यही तथ्य फलित होता है(११-१४)।
१०. मोक्षमार्गका गुरु कैसा होता है ____ आगममें मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिये इसका स्पष्टरूपसे निर्देश करते हुए रत्नकरण्डश्रावकाचारमें लिखा है कि जिसमें अणुमात्र भी विषयसम्बन्धी आशा नहीं पाई जाती, जो आरम्भ और परिग्रहसे रहित है तथा जो ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन है, मोक्षमार्गमें उसे ही गुरु माना गया है (४) । यद्यपि इस ग्रन्थमें गुरुका सीधा लक्षण तो दृष्टिगोचर नहीं होता। पर इसमें यतिपतिमें सम्यक् श्रुतका अभ्यास, निर्दोष वृत्ति, पर प्रतिबोधन करनेमें प्रवीणता, मोक्षमार्गका प्रवर्तन, ईर्षारहित वृत्ति, भिक्षावृत्तिमें दीनताका अभाव और लोकज्ञत्ता आदि जिन गुणोंका विधान किया गया है (६) उससे मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिये यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। आगे (६६-६७) पद्योंमें जिन विशेषताओंका निर्देश किया गया है उनपर दृष्टिपात करनेसे भी उक्त तथ्यका ही समर्थन होता है । इतना अवश्य है कि शिष्योंकी सम्हाल करनेमें उसे प्रमादी नहीं होना चाहिए (१४१-१४२)। और न स्नेहालु या शिष्योंके दोषोंके प्रति दुर्लक्ष्य करनेवाला होना चाहिये।
यह मोक्षमार्गके गुरुका संक्षेपमें स्वरूप निर्देश है। यह हो सकता है कि कचित्, कदाचित् उसमें मूलगुणोंके पालनमें या उत्तरगुणोंका समग्रभाव से परिशीलन करनेमें कुछ कमी देखी जाय या शरीर संस्कार आदि रूप प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर हो तो भी इतनेमात्रसे उसका मुनिपद सर्वथा खण्डित नहीं हो जाता। यही कारण है कि नैगमादिनयोंकी अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्रमें पुलाक, वकुश और कुशील इन तीन प्रकारके मुनियोंको भी निर्ग्रन्थरूपमें स्वीकार किया गया है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि जिन मुनियोंमें मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें कमी देखी जाय उन्हें मुनि मानना कहाँ तक उचित है। प्रश्न.
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