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प्रस्ताबना
शाखा-उपशाखाएं होती हैं, फूल-फल होते हैं वैसे ही श्रुत भी अनेकान्त स्वरूप पदार्थकी नय-उपनयका आश्रय लेकर व्याख्या करनेमें प्रवीण है (१६९) । यह हम श्रुतके बलसे ही जानते है कि जो वस्तु एक अपेक्षासे तत्स्वरूप है वही वस्तु दूसरी अपेक्षासे अतत्स्वरूप भी है। यह विश्व अनादिअनन्त भो है यह हम इसीसे समझते हैं (१७०)। न कोई वस्तु सर्वथा स्थायी है, और न सर्वथा क्षणविनाशीक ही है (१७१) । किन्तु एक ही समयमें वह उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यस्वरूप त्रयात्मक सिद्ध होती है (१७१) । इसप्रकार विश्वमें जितने भी पदार्थ हैं उनके सामान्य स्वरूपके निर्णय करनेमें सम्यक् श्रुतकी जितनी उपयोगिता है, प्रत्येक पदार्थके असाधारण स्वरूपके निर्णय करनेमें भी श्रुतकी उतनी ही उपयोगिता है। यह भी हम श्रुतसे ही जानते हैं कि प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वभाव है, इसलिये स्वभावसे च्यत न होकर उसमें रमना ही उसकी प्राप्ति है और वही उसका मोक्ष है (१७४) ।
इस समय रयणसार हमारे सामने है। उसमें प्रक्षिप्त गाथाओंको चुनचुनकर यदि अलग कर दिया जाय तो उसे भी आचार्य कुन्दकुन्दके आगमानुसारी रचनाओंमें वही स्थान प्राप्त है जो स्थान समयप्राभृत और प्रवचनसार आदिका स्वीकार किया गया है। उसमें श्रावक और साधुके मुख्य कार्योंका निर्देश करते हुए लिखा है कि जैसे श्रावकधर्ममें दान और पूजा मुख्य हैं । इनके बिना वह श्रावक नहीं हो सकता । वैसे ही मुनिधर्ममें ध्यान और अध्ययन ये दो कार्य मुख्य हैं। इनके बिना मुनि मुनि नहीं।' यही कारण है कि प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुन्द साधुको आगमचक्षु स्वीकार करते हए (२३४) कहते हैं कि नाना प्रकारके गुण-पर्यायोंसे युक्त जितने भी पदार्थ हैं वे सब आगमसिद्ध हैं, ऐसा जो जानते हैं और अनु. भवते हैं वस्तुतः वे ही साधुपदसे अलंकृत सच्चे साधु हैं (२३५) । कारण कि जिनकी आगमके अनुसार जीवादि पदार्थोमें श्रद्धा नहीं है वे बाह्यमें साधु होकर भी सिद्धिको प्राप्त करनेके अधिकारी नहीं होते यह स्पष्ट है (२३७)।
मोक्षमार्गमें आगम सर्वोपरि है। उसके हार्दको समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी मोक्षमार्गके प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शनको भी प्राप्त नहीं कर सकता । ग्रन्थकारने सम्यग्दर्शनके जिन दस भेदोंका ग्रन्थके प्रारम्भमें उल्लेख किया है उनमेंसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन तो सकल श्रु तधर श्रु तकेवलीके ही होता है। इससे ही उसकी प्रारम्भमें श्रुताधारता स्पष्ट हो जाती है। १. दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ।
झाणाज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥रयण० गा० १०॥
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