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________________ आत्मानुशासन निर्जरा और गुणसंक्रमका ही निर्देश कर दिया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जो संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त चारों गतिका जीव क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धिपूर्वक सर्वविशुद्ध ज्ञायकस्वभाव आत्माके सन्मुख होकर तीन करण परिणाम करता है उसके स्वयं ही उदयागत कर्मकी तो पूर्वोक्त विधिसे हानि होने ही लगती है, जिन कर्मोंका उस समय उदय नहीं पाया जाता उन कर्मोंका भी स्वयं ही काण्डकघात होकर गुणश्रेणिनिर्जरा होने लगती है । एक ओर आत्मा स्वोन्मुख होकर स्वयंको प्राप्त करनेका अनन्त पुरुषार्थ करता है और दूसरी ओर संचित कर्मोंकी निर्झरा स्वयं होने लगती है । इसके साथ नवीन बन्धमें जो उत्तरोत्तर हानि होने लगती है वह अलग। यह उस आत्मा की कथा है जो सबसे पहले उदयागत कर्मकी उपेक्षा कर आत्माको प्राप्त करनेका पुरुषार्थ करता है। इससे सिद्ध है कि जहाँ संसारकी परिपाटीमें दैवकी मुख्यता है और पुरुषार्थ गौण है। वहीं राग, द्वेष और मोहके परवश होकर अनादि कालसे भूले हुए जीवके अपने स्वभावभूत आत्माकी प्राप्तिमें पुरुषार्थ मुख्य है और दैव गौण है। इतना अवश्य है कि जो व्यक्ति उन्नतिके शिखरपर चढ़कर भी अणुमात्र रागका पक्ष लेता है उसका मध्यान्हके सूर्यके समान पतन होना अवश्यंभावी है। इसी बातको ध्यानमें रखकर आचार्यदेवने राग-द्वेषके परवश न होनेका इसारा करते हुए साधुके प्रति ये उद्गार प्रगट करते हुए कहा है-भले ही तीन गुप्तियोंका दृढ़तासे पालन करो, धैर्यपूर्वक हिताहितके विचारमें भले ही सावधान बने रहो, इतना सब तो हो, फिर भी कहीं मुनिपदके योग्य नित्य-नैमित्तिक क्रियामें असावधानतावश कोई दोष लग जाय तो उसका मुनिपदसे पतन होना अवश्यंभावी है (२४८) । इसलिये आत्महित चाहनेवालोंको चाहिये कि वे बाह्य संयोग आदिके बड़प्पनमें स्वयंको न रिझाकर आत्मलाभकी दिशामें प्रयत्नशील बननेके उपायमें लगें। दैव अर्थात् पुराकृत कर्मकी उपेक्षाकर आत्महितके कार्य में लगनेका इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग नहीं प्रतीत होता इतना सुनिश्चित है। ९. साधुका आगामाभ्यास प्रथम कर्तव्य मोक्षमार्गमें आचार्य परम्परासे प्राप्त सम्यक् श्रुतकी प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। जो साधु अपने मनरूपी मर्कटको अपने वशमें रखना चाहता है उसे अपने चित्तको सम्यक श्रुतके अभ्यासमें नियमसे लगाना चाहिये। श्रुतस्कन्ध हरे-भरे, फूल-पत्तों से लदे हुए एक वृक्षके समान है। जैसे वृक्षमें अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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