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________________ प्रस्तावना कहते हो कि उदयागत कर्मका फल भोगनेमें अज्ञानी ही विवश है, ज्ञानी नहीं। ___ समाधान यह है कि कर्मकी उदय-उदीरणा अज्ञानीके भी होती है और ज्ञानीके भी होती है। परन्तु इन दोनोंमें इतना ही अन्तर है कि अज्ञानी रागरूपी रससे लिप्त होकर कर्मके फलको भोगता है और ज्ञानी रागरूपी रससे लिप्त नहीं होता, इसलिये ज्ञानीके कर्मकी उदय-उदीरणा होने पर भी वह परमार्थसे उसका भोक्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है। भगवान् ऋषभदेवको छह माहके उपवासके बाद छह माह तक भले ही आहारका लाभ न हुआ हो, पर उस अवस्थामें भी एक क्षणके लिये भी उनके विकल परिणाम नहीं हुए, प्रत्युत वे उसके ज्ञाता-दृष्टा ही बने रहे (११८) । यह है ज्ञानीकी भूमिका। ज्ञानी भी हो और कर्मोदयके वश हो अर्थात् परमार्थसे अपने कर्मफलका ज्ञाता न होकर अपनेको उसका भोक्ता भी मानता रहे ये दो बातें एक साथ नहीं बन सकतीं। इसीलिये पद्य २४६ में आचार्यदेव कहते हैं कि जो योगी है उसके जैसे पाप कर्मका भोग नहीं होता, वैसे ही पुण्यकर्मका भी भोग नहीं होता, वे दोनों निष्फल होकर स्वयं झड़ जाते हैं। . ___ अब आगे हम यही देखेंगे कि वे दोनों निष्फल होकर कैसे झड़ जाते हैं। जहाँ भी आगममें मोक्षमार्गकी चर्चा आई है वहाँ यह तो स्वीकार किया ही है कि यदि कोई लौकिक प्रयोजनके बिना आत्महित बुद्धिसे स्वाध्याय आदि शुभ कर्ममें प्रवृत्त होता है तो उसके पाप कर्मके अनुभागकी प्रतिसमय अनन्तगुणी हानि होने लगती है और उस समय होनेवाले विशुद्ध परिणामके बलसे सातावेदनीय आदि परावर्तमान पुण्य प्रकृतियोंका ही बन्ध होने लगता है । परिणामोंकी यह भूमिका मोक्षमार्गके अनुरूप शुभ परिणामोंके निमित्तसे तो होती ही है। साथ ही जो स्वभाव सन्मुख होकर साक्षात् मोक्षमार्ग पर आरूढ होनेके लिये आत्मपुरुषार्थको जागृत करने लगता है उसके न केवल यह भमिका बनती है, किन्तु इसके साथ ही यथासम्भव शुद्धोपयोगके बलसे शुभ और अशुभ कर्मोंकी निर्जरा भी होने लगती है। इसी तथ्यको ध्वनित करते हए आचार्यदेवने पद्य २५७ में जो यह कहा है कि पीछे उदयमें आने योग्य कर्मको तीव्र तपके बलसे जो साधु उदयमें लाकर उसकी निर्जरा करता है वह कर्म यदि स्वयं ही उदयको प्राप्त हो जाता है तो इसमें साधुकी क्या हानि है । तो इस द्वारा आचार्यदेवने अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग-काण्डकघात और प्रशस्त तथा अप्रशस्त दोनों प्रकारके कर्मोंके स्थितिकाण्डकघातके साथ गुणश्रेणि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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