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आत्मानुशासन
स्वगत योग्यता इन दोनोंका नाम दैव है। तथा वर्तमानमें बुद्धिपूर्वक की गई चेष्टाका नाम पुरुषार्थ है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि प्राणीमात्रके संसारके प्रत्येक कार्यमें गौण-मुख्यभावसे इन दोनोंका सद्भाव नियमसे पाया जाता है। कहीं पुरुषार्थकी प्रधानता रहती है और देव गौण रहता है तो कहीं दैवकी प्रधानता रहती है और पुरुषार्थ गौण रहता है। बुद्धिपूर्वक जो कार्य किया जाता है उसमें पुरुषार्थकी मुख्यता रहती है और अबुद्धिपूर्वक जो कार्य होते हैं उनमें दैव मुख्य हो जाता है। इसी तथ्य को ध्यानमें रखकर आचार्यने अनेक पद्योंमें दैव या विधिकी प्रधानता जता कर यह तथ्य उद्घाटित किया है कि यह अज्ञानी अतएव मिथ्यादृष्टि प्राणी उदयागत कर्मके परवश होकर किस प्रकार अनन्त काल तक नरक निगोदादि दुःखोंका पात्र बना रहता है। इसी तथ्यको आलंकारिक शैलीमें परमतमें प्रसिद्ध इन्द्रकी कल्पित कहानीको दृष्टान्तरूपमें उपस्थित कर आचार्यदेव लिखते हैं कि जिसका मन्त्री वृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देवगण थे, दुर्ग स्वर्गलोक था, हाथी ऐरावत था तथा जिसके ऊपर विष्णुका अनुग्रह था, इस प्रकार अद्भुत बलसे संयुक्त भी इन्द्रको युद्ध में दैत्यों द्वारा पराजयका मुख देखना पड़ा, इसलिगे यह निश्चित है कि प्राणीमात्रके लिये दैव ( उदयागत कर्म ) ही शरण है ( पृ० ३२ ) । दैवके आगे पुरुषार्थका कुछ वश नहीं चलता वह तो तिरस्कार करने योग्य ही है।
उदयागत कर्मके परवश हुआ यह अज्ञानी प्राणी कैसे विफल पूरुषार्थ होकर दुःखका भाजन बनता रहता है इसे एक दूसरे दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए आचार्यदेव पुनः कहते हैं कि विषयजन्य सुखकी प्राप्तिके लिये कितना ही पुरुषार्थ क्यों न किया जाय, जब तक यह अज्ञानी प्राणी उदयागत कर्मके अधीन होकर प्रवृत्ति करता रहता है तब तक वह कभी भी अपने पुरुषार्थमें सफल नहीं हो सकता ( २३३ )। इस प्रकार यह अज्ञानी जीव किस प्रकार उदयागत कर्मके परवश वर्तता रहता है इसका उक्त कथनसे समर्थन होने पर भी आदिदेव भगवान् ऋषभदेवका उदाहरण उपस्थित कर (प० ११९ ) यह भी तो कहा जा सकता है कि उदयागत कर्मका फल भोगने में ज्ञानी भी तो विवश है। ऐसी अवस्थामें यह क्यों
१. पुराकृतं कर्म योग्यता च देवम। उभयं अदृष्टम् । पुरुषार्थः पुनः इहचेष्टितं
दृष्टम् । २. आप्तमीमांसा ९.१ ।
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