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________________ प्रस्तावना १७ गया है (२३) वे परिणाम शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारके हैं । पराश्रित बुद्धिके त्यागपूर्वक स्वभावभूत आत्माकी उपासनासे जो रत्नत्रयरूप परिणामों की प्राप्ति होती है वे परिणाम शुद्ध कहलाते हैं । अशुद्ध परिणाम दो प्रकारके हैं - शुभ और अशुभ | इन्हींका नाम पुण्य और पाप भी है । मोक्षमार्गके अनुरूप देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय और दान आदि जितनी भी मन, वचन और कायकी सत् प्रवृत्ति होती है वह सब शुभ या पुण्यरूप मानी जाती है तथा संसारवर्धक विषय कषायरूप जिनती भी मन, वचन और कायकी असत् प्रवृत्ति होती है वह सब अशुभ या पापरूप प्रवृत्ति मानी जाती है । लौकिक जन भी यह जानकर कि शुभ प्रवृत्ति पुण्यरूप होकर सुखका कारण है और अशुभ प्रवृत्ति पापरूप होकर दुखका कारण है, सदा ही शुभ प्रवृत्ति करनेमें आदरभाव बनाये रखते हैं । यही कारण है कि आगे २३९वें पद्यमें आचार्यने शुभ, पुण्य और सुखको हितरूप स्वीकार करके उन्हें अनुष्ठेय कहा है तथा अशुभ, पाप और दुःखको अहितरूप जानकर उनके अनुष्ठान करनेका निषेध किया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शुभ, पुण्य और सुख सदा ही अनुष्ठेय हैं । किन्तु बात यह है कि परमार्थसे तो प्रवृत्तिमात्र संसारकी जननी होनेके कारण मोक्षमार्ग में निषिद्ध ही मानी गई है । परन्तु जब तक छोड़ने योग्य उनसे मन, वचन और कायका सम्बन्ध अभिप्रायपूर्वक नहीं छूट जाता तभी तक उनमें निवृत्तिका अभ्यास करना योग्य है । परन्तु जहाँ अशुभसे निवृत्तिके साथ शुभमें प्रवृत्तिका भी अभाव होकर आत्मा अपने ज्ञायकस्वभावमें लीन हो जाता है, तभी वह अव्यय मोक्षपदकी प्राप्तिका अधिकारी होता है ( २३६) । आगे इसी बात को विशदरूपसे समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि राग द्वेषका होना ही प्रवृत्ति है और इनके निषेधका नाम ही निवृत्ति है । किन्तु ये दोनों ही बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धसे होते हैं, इसलिये इनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है ( पृ० २३७ ) । इस प्रकार हम देखते हैं कि विकल्पको भूमिकामें शुभ, पुण्य और सुख आश्रय करने योग्य भले ही माने गये हों, परन्तु अन्तमें सर्वथा हेयरूप अशुभ, पाप और दुःखके छूटनेके साथ शुभ, पुण्य और इन्द्रिय सुखमें भी हे बुद्धि होकर शुद्धोपयोगके बलसे वे स्वयं छूट जाते हैं ( प ० २४० ) । परम पदको प्राप्त करनेका एकमात्र यही मार्ग है । ८. देव और पुरुषार्थ जो अकलंकदेवने अष्टशतीमें दैव और पुरुषार्थकी व्याख्या करते हुए कुछ लिखा है उसका भाव है कि पहले उपार्जित किया हुआ कर्म और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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