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________________ आत्मानुशासन मोक्षमार्गमें यह सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। यह अचल मोक्षरूपी प्रासादपर आरोहण करनेके लिये सोपानके समान है (९) । दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके भेदसे आराधना चार प्रकारकी है। उनमें इसका स्थान प्रथम है (१०)। इसके होनेपर ही अन्य आराधनाओंकी सफलता है। अन्य सब आराधनाएं इसके बिना पत्थरके भारी बोझके समान हैं । परन्तु इसके होनेपर वे महामणिके समान पूज्य हैं (प० १५) । यह हितकी प्राप्ति अहितका परिहार करानेमें समर्थ है (प० १६)। संसारी प्राणी चाहे सुखी हों या दुःखी, उन्हें सदा धर्मकार्यों में ही लगे रहना चाहिये । कारण कि सुखी जीवोंके लिये यह सुखकी अभिवृद्धि में निमित्त है और दुःखी जनोंके दुःखका उपशम भी इसीसे होता है (प० १८) । धर्म प्रयत्नसे सींचे गये उस वृक्षके समान है जिसकी प्रयत्नपूर्वक भले प्रकार आराधना करनेसे नियमसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है (१९) । तात्पर्य यह है कि धर्म अपूर्व कल्पवृक्षके समान है। कल्पवृक्षसे तो याचना करने पर ही फलकी प्राप्ति होती है। किन्तु जो रत्नत्रयस्वरूप धर्मको उपासना करता है उसे बिना याचना किये ही स्वर्गकी प्राप्तिके साथ अन्तमें मोक्षस्वरूप उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। इसलिये स्वात्मातिरिक्त अन्य सब पदार्थोंमें स्नेहका परित्याग कर रत्नत्रयकी आराधना करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि जिसका हृदय थोड़ा भी सहसे अनुरक्त है वह ज्ञान और चारित्रकी उपासना करता हुआ भी स्नेह ( तेल ) युक्त दीपकके समान कज्जल जैसे मलिन कर्मोंको ही जन्म देता है ( २३१ ) । अतः बाह्य पदार्थों में मूर्छाका परित्याग करके ही धर्मकी आराधना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पुण्य-पाप सर्वार्थसिद्धिमें लिखा है-पुनाति आत्मानं इति पुण्यम् । पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । जो आत्माको पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं तथा जो शुभसे आत्माकी रक्षा करे वह पाप है । अब प्रश्न यह है कि ऐसे कौनसे कार्य हैं जिनके करनेसे आत्मा पवित्र होता है ? समाधान यह है कि प्रथम तो रत्नत्रयकी आराधना यह मुख्य कार्य है उसकी उपासनासे यह आत्मा कर्मकलंकसे मुक्त हो अनन्त सुखका भोक्ता बनता है। आत्माको पवित्र करनेका यह ऐसा मार्ग है जिस पर आरूढ़ होनेके लिये मन, वचन और कायपूर्वक शुभ प्रवृत्तिका होना अनिवार्य है। किन्तु इसमें भी परिणामोंकी सम्हाल मुख्य है, क्योंकि पुण्य और पापका कारण परिणामोंको ही माना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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