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आत्मानुशासन
चारित्र परिणाम होता है वह मात्र निर्जराका ही कारण स्वीकार किया गया है, बन्धका कारण नहीं। फिर भी यह देखकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं, इसलिये तो महाबन्धमें तीर्थकर प्रकृतिके बन्धको सम्यक्त्व-निमित्तक कहा गया है और यह देख कर कि आहारकद्विकका बन्ध संयमीके ही होता है, असंयमीके नहीं, आहारकद्विकके बन्धको संयमनिमित्तक कहा गया है । यथा
आहारगं संजमपच्चयं । तित्थयरं सम्मत्तपक्चयं । महाबन्ध पु० ४, पृ० १८६ ।
यहाँ यह शंका नहीं की जा सकती कि यदि तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्व निमित्तक होता है तो सभी सम्यग्दृष्टियोंके उसका बन्ध होना चाहिये और यदि आहारकद्विकका बन्ध संयमनिमित्तक होता है तो सभी संयमियोंके आहारकद्विकका बन्ध होना चाहिये, क्योंकि ऐसी व्याप्ति तो है कि जो भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करेगा उसको कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये । तथा जो भी आहारकद्विकका बन्ध करेगा उसे कमसे कम अप्रमत्तसंयत तो होना ही चाहिये । इन दोनोंके इन प्रकृतियोंका बन्ध नियमसे होता ही है ऐसा नहीं है। होगा तो ऐसी योग्यताके होनेपर ही उनके बन्धके कारणोंसे होगा, अन्यथा नहीं होगा।
आगमके इस कथनका तात्पर्य यह है कि अन्यत्र न होकर जिस भूमिकामें जिस कर्मका बन्ध होता है उसमें नयदृष्टिसे कारणता स्वीकार करना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाय तो जिसके भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होगा उसे कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये यह कथन युक्तिसंगत नहीं माना जा सकेगा। एक कार्यके होने में कारण अनेक होते हैं, कोई साधारण कारण होता है और कोई असाधारण कारण होता है। यहाँ मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंके बन्धमें मिथ्यात्व असाधारण कारण है, क्योंकि जो भी उनका बन्ध करेगा उसका मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है, उन प्रकृतियोंके बन्ध होनेमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामका होना अनिवार्य नहीं है।
(८) उक्त १६ प्रकृतियोंका प्रदेशबन्धकी अपेक्षा विचार करनेपर भी इनका उत्कृष्टादिके भेदसे किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध क्यों न हो उसका भी मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है। मिथ्यादृष्टि न हो और केवल योगके निमित्तसे इन प्रकृतियोंका किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध हो जाय ऐसा नहीं है।
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