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प्रस्तावना
भी होना सम्भव है। परन्तु उन १५ प्रकृतियोंका जब भी बन्ध होगा तब मिथ्यात्वरूप परिणामके होनेपर ही होगा, अन्यथा नहीं। तब उस जीवके अनन्तानुबन्धीका उदय रहे या न रहे, इससे उन १५ प्रकृतियोंके बन्ध होने और न होनेमें कोई फरक नहीं पड़ता। जब भी उनका बन्ध होगा, मिथ्यात्व परिणामके होनेपर ही होगा यह अकाट्य नियम है। इसलिये इन १५ प्रकृतियोंके बन्धका भी प्रधान कारण मिथ्यात्व होनेसे मिथ्यात्वको प्रमुखरूपसे बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है ।
(५) सामान्यतया प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा तो आगमका यह अभिप्राय है ही, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी अपेक्षा भी विचार करनेपर जिन १६ प्रकृतियोंका मात्र मिथ्यात्व.गुणस्थानमें बन्ध होता है उनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य किसी भी प्रकारका स्थितिबन्ध या अनुभागबन्ध क्यों न हो उसका अविनाभाव सम्बन्ध भी जैसा मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता है वैसा अविरति आदि अन्य परिणामोंके साथ नहीं पाया जाता, क्योंकि महाबन्धमें जहाँ भी इन १६ प्रकृतियोंके उत्कृष्टादि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके स्वामीका विचार किया गया है वहाँ उसका मिथ्यादृष्टि होना अवश्यंभावी कहा गया है । उसके संक्लेश आदिरूप परिणामोंमें भेद हो सकता है पर उसे मिथ्यादृष्टि होना ही चाहिये।
(६) (प्रसंगसे) यहाँ यह बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है कि मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों (बन्धकारणों) का विचार अनुभागबन्धकी अपेक्षा करते हुए महाबन्धमें लिखा है___मिच्छ० - णवूस० - णिरयाउ० - णिरयगइ-चदुजादि-हुंड०-असंप०-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि० ४ मिच्छत्तपच्चय। महाबन्ध पु० ४ पृ० १८६ ।
आशय यह है कि मिथ्यात्व आदि उक्त १६ प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यात्व निमित्तक ही होता है। उनके बन्धमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप असंयम परिणामका होना अनिवार्य नहीं है । इसलिये जो बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर कहकर यहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिकी प्रधानताको सूचित करते हैं उनका वह चिन्तन आगमानुसार नहीं है, इतना उक्त आगमके परिप्रेक्ष्यमें स्पष्टरूपसे स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। . (७) यह तो सब स्वाध्यायी बन्धु जानते हैं कि मिथ्यात्व परिणामके अभावस्वरूप जो सम्यग्दर्शनरूप स्वभाव परिणाम होता है वह तथा अनन्तानुबन्धी आदि १२ कषायोंके अभावस्वरूप जो वीतराग स्वरूप
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