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आत्मानुशासन कारण हैं इस कथनमें भी कोई बाधा नहीं आती । दोनों ही कथन अपनीअपनी जगह आगमानुसार ही हैं। इनमेंसे किसी एकका भी अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी एक कथनके अपलाप करनेका अर्थ होता है उस नय दृष्टिको अस्वीकार करना।
६. मिथ्यात्व बन्धका कारण मुख्य है . (२) आगे इस पर विस्तारसे विचार करनेके पहले कर्मबन्धके जो पाँच कारण कहे गये हैं उनमेंसे मिथ्यात्वमें बन्धकी कारणता क्यों स्वीकारकी गई है इस विषय पर संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे।
यह तो सुप्रसिद्ध सत्य है कि जो पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है उसमें उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा जिन प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वे प्रकृतियाँ १६ हैं। उनमेंसे एक मिथ्यात्व ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है, । मिथ्यात्वरूप परिणामके साथ उसका बन्ध नियमसे होता ही रहता है । अनन्तानुबन्धीको विसंयोजना करनेवाला जीव सम्यक्त्व आदिरूप परिणामोंसे च्युत होकर यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है तो उसके प्रारम्भसे हो अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होकर भी एक आवलि काल तक अपकर्षणपूर्वक उसकी उदय-उदीरणा नहीं होती ऐसा नियम है। अतः ऐसे जीवके एक आवलि काल तक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामके न होने पर भी मिथ्यात्व परिणामनिमित्तक मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध होता ही है। साथ ही शेष १५ प्रकृतियोंका भी यथासम्भव बन्ध होता है।
(३) यद्यपि वहाँ एक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामको छोड़कर बन्धके अन्य सब कारण उपस्थित अवश्य हैं पर मिथ्यात्व प्रकृतिके बन्धका अविनाभाव सम्बन्ध जिस प्रकार मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता है वैसा अन्य प्रत्ययोंके साथ नहीं पाया जाता, इसीलिये ही मिथ्यात्व कर्मके बन्धका प्रधान कारण मिथ्यात्व परिणाम होनेसे बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको परिगणित किया गया है, अन्यको नहीं। ... (४) दूसरे अन्य जिन हुंडक संस्थान आदि १५ प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होती है वे सबकी सब सप्रतिपक्ष प्रकृतिगाँ हैं। इसलिये यह तो माना जा सकता है कि जब मिथ्यात्व गुणस्थानमें उन प्रकृतियोंके बन्धके कारणरूप परिणाम नहीं होते तब उनका बन्ध न होकर उनकी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है। फिर भी अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध तो मिथ्यात्वरूप परिणामोंके अभावमें १. संजोजिदअगंताणुबंधोणमावलियामेत्तकालमुदोरणाभावादौ । ध० पु. १५
पृ० ७५ ।
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