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________________ प्रस्तावना लब्धिपूर्वक होता है ऐसा नियम है फिर भी यहाँ उसके दो भेद वर्तमानमें उपदेश लाभ होने और न होनेकी अपेक्षा किये गये हैं। आशय यह है, कि जिसे पहले उसी पर्यायमें या अनन्तर पूर्व पर्यायमें भेदविज्ञानी द्वारा उपदेशलाभ होकर उसे ग्रहण, धारण और अनुस्मरण करनेकी सामर्थ्य उत्पन्न हुई हो उसे भव-भोगोंके प्रति उदासीनतापूर्वक जो आत्मानुभूति होती है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है, तथा वर्तमान में जो उपदेशपूर्वक आत्मलाभ होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। आगममें सम्यग्दृष्टि ज्ञानीका उपदेश ही कार्यकारी माना गया है, इतना सुनिश्चित है। तीन भेदोंका निर्देश करते हुए उसके आगममें ये तीन भेद परिलक्षित होते हैं-औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन। ५. नयदृष्टिसे बन्धके कारण आचार्यदेवने पद्य १७९ और २४५ में बन्धका उल्लेख कर अनेक स्थलोंपर संसारके जिन कारणोंका उल्लेख किया है उनमें मिथ्यात्व मख्य है । अदेवमें देवबुद्धि, अगुरुमें गुरुबद्धि और अतत्त्व या उनके प्रतिपादक कुशास्त्रमें तत्त्व या शास्त्रबुद्धिका होना मिथ्यात्व है। (१)षट्खण्डागम धवला पुस्तक १२में बन्ध प्रत्ययोंका निर्देश करनेवाला एक प्रत्यय नामका अनुयोगद्वार आया है। उसमें नय दृष्टिसे कर्मवन्धके कारणोंका विचार किया गया है। नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धके कारणोंका निर्देश करते हुए सूत्र ८ में' मोहके साथ क्रोध, मान, माया और लोभको भी बन्धके कारणों में परिगणित किया गया है । तथा उन तीन नयोंसे सूत्र १० मे मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके साथ योगको भी बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है । इससे स्पष्ट है कि जैसे क्रोधादि कषाय और योग नैगमादि तीन नयौसे बन्धके कारण हैं वैसे ही मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान भी इन्हीं तीनों नयोंकी अपेक्षा बन्धके कारण हैं। इस अपेक्षासे इनमें समान रूपसे कारणता स्वीकार करने में किसी प्रकारका प्रत्यवाय नहीं है। आठ कर्मोके बन्धके कारणोंका मात्र ऋजुसूत्र नयसे विचार करने पर प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, यह स्वीकार किया गया है। इसलिये नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे मिथ्यात्व आदि पाँचों बन्धके कारण है जो यह आगममें स्वीकार किया गया है उसकी संगति बैठ जाती है। तथा ऋजुसूत्र नयसे योग और कषाय ये दो बन्धके १. ध० पु० १२ पु० २८३ । २. वही पृ० २८७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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