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प्रस्तावना (९) यहाँ यह कहा जा सकता है कि मिथ्यादृष्टि तो हो, परन्तु उसके योग और कषाय न हो तो उन प्रकृतियोंका केवल मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्ध नहीं होगा। परन्तु जिसका ऐसा कहना है सो उसका वैसा कहना इसलिये युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगमके अनुसार यह तो कहा जा सकताहै कि योग और कषाय तो हो, परन्तु मिथ्यात्व न हो । पर यह नहीं कहा जा सकता कि मिथ्यात्व तो हो और योग और कषाय न हो ।हाँ कोई कहे कि मिथ्यात्व तो हो और अनन्तानुबन्धी न हो तो यह कहना जैसे बन जाता है। वैसे ही अनन्तानुबन्धी तो हो और मिथ्यात्व न हो, गुणस्थान भेदसे यह कहना भी बन जायगा। अतः आगमके अनुसार यही मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है कि आगममें जो बन्धके पाँच कारण कहे गये हैं उनमें मिथ्यात्व मुख्य है ।
(१०) अब प्रश्न यह है कि जब मिथ्यात्व भी बन्धका कारण है तब ऋजुसूत्रनयसे स्थितिवन्ध और अनुभागबन्धका कारण मात्र कषायको तथा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण मात्र योगको क्यों कहा । ऋजसूत्रनयसे मिथ्यात्वका बन्धके कारणोंमें क्यों नहीं परिगणित किया गया ? समाधान यह है कि कषायकी वृद्धि और हानिके साथ तो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी वृद्धि और हानि देखी जाती है, इसलिये तो ऋजुसूत्रनयसे कषायको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कहा' तथा योगकी वृद्धि और हानिके साथ प्रदेशबन्धकी वृद्धि और हानि होती है, इसलिये ऋजुसूत्र नयसे योगको प्रदेशबन्धका कारण कहा। यहाँ जिस प्रकार प्रदेशबन्धका कारण योग है उसी प्रकार प्रकृतिबन्धका कारण भी योग है, क्योंकि उसके बिना उसको उत्पत्ति नहीं हो सकती, और ऐसा नियम है कि जिसके बिना जिसकी उत्पत्ति नहीं होती वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है।
(११) फिर भी यह प्रश्न तो खड़ा ही रहता है कि जब ऋजसत्रनयसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग तथा स्थितिबन्ध और अनुभाग १. णाणावरणीयट्ठिदिवेयणा अणुभागवेयणा च कसायपच्चएण होदि, कसाय__ वढिहाणीहिंता ट्ठिदि-अणुभागाणं वड्ढि-हाणिदसणादो। ध० पु० १२
पृ० २८८ । २. ण च जोगवड्ढि-हाणोओ मोत्तूण अण्णेहितो णाणावरणीयपदेस बंधस्स
वढि हाणि वा पेच्छामो । ध० पु० १२ पृ० २२८ । ३. याणि चेव योगट्ठाणाणि तागि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि । णवरि पदेसबंध
ट्ठाणाणि पगदिविसेसेण विसे साधियाणि । म० वं०, भा० ६ पृ० १०१ । .
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