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आत्मानुशासन
अर्थ — जे नरसिंह पुरुषनिमैं प्रधान पर्वतनिकी गुफा, गहन वन, एकांत स्थानक ताविर्षं तिष्ठे आत्म-स्वरूपकू ध्यावे हैं, नाश किया है मोह जिनने, arat हवे की है प्रतिज्ञा जिनके, सर्व ही तजिकरि सकल परीषह सहै हैं । अचित्य है महिमा जिनकी, शरीरकू सहाई जानि तत्काल कछू इक लज्जाकू प्राप्त भए हैं । जो ए जड़ हमारी कहा सहाई होयगा ? भ्रांति करि अब तक सहाई जान्या सो सहाई नांही । अपने कार्यविषै आप उद्यमी भये, पल्कासन वांधि निज स्वरूपका ध्यान करे हैं, शरीरतें रहित होय की विधि विचार हैं जिनके ये विचार हैं- हमारे शरीर बहुरि उदय न आवे, निरादरा करि तजिवेकू उद्यमी भये हैं ।
भावार्थ – सर्व संसारी जीवनिकै शरीरका ममत्व है सो पुनः पुनः शरीरकू ं धारै हैं । अर जे निरादराकरि शरीरकू तजै हैं तिनकै शरीर बहुरि उदय न आवै, परम पदकू पावै ।
आगे है हैं कि कर्मनिकी अर नवे नवे तन धारणकी विधि के दूर होवेका चितवन करते संते आप परम उत्तम गुणनिकर मंडित हैं सो हमकू पवित्रताके करणहारे होहु -
शार्दूलविक्रीडितछंद
येषां भूषणमङ्गसङ्गतरज स्थ (नं शिलायास्तलं शय्या शर्करिला मही सुविहितं गेहं गुहा द्वीपिनाम् । आत्मात्मीयविकल्पवीतमतयस्त्रुट्यत्त मोग्रन्थयः
ते नोनधना मनांसि पुनत मुक्तिस्पृहा निस्पृहाः ।। २५९ ।।
अर्थ – जिनके अंगमें रज लागि रही है ए ही आभूषण हैं, अर सिलातल ही स्थानक है, अर कंकरेली पृथ्वी सज्या है, अर जिन गुफानिमें सिंहादिक रहैं तेई तिनकै घर हैं, अर ये देहादिक मेरे अर मैं इनिका ऐसे विकल्पतें रहित हैं बुद्धि जिनकी, अर टूटि गई है अज्ञानरूप ग्रन्थि जिनके ते ज्ञान धन, मोक्षके पात्र परम निस्पृह हमारे मनको पवित्र करो ।
भावार्थ - जे विषयाभिलाषी शरीरके अनुरागी हैं ते आप ही बूडि रहे हैं, औरनिकू कैसें त्यारें ? अर जो विरक्त हैं, रागादिकतैं रहित हैं ते तरण-तारण समर्थ हमारे रागादिक मल हरि हमारे मनकू पवित्र करो ।
आगे है है बहुरि
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साधु कैसे हैं
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