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________________ १६९ उग्र तपसे होनेवाली निर्जरा परिहार ताहि सुख माने हैं, अर सर्व त्यागकू महा उछव माने हैं, अर संग्रहकूप्राण-त्याग मान हैं, इह दृष्टि जिनकी है तिनकौं ऐसा कौन पदार्थ जो सुखकै निमित्त न होय ? सब हो सुखके कारण होहि । जा कारण साधु सदा सुखी ही हैं, यह बात सत्य है। भावार्थ-जगतविर्षे जे परिग्रहादिक दुःखदायक सामग्री हैं तिनिहीकू जिन सुखका कारण जानि अंगीकार करी तिनकै और दुःखका कारण कौन, तातै जे सकल प्रपंचतें छूटे ते ही सदा सुखी हैं।। आगै कोऊ प्रश्न करै है कि कर्मके उदय करि उपज्या दुःख ताहि भोगव तिनिकै चित्तविर्षे खेदकी उत्पत्ति है तातें कैसैं सुखीपना है ? ताका समाधान करै हैं __शार्दूलविक्रीडितछंद आकृष्योग्रतपोबलैरुदयगोपुच्छं यदानीयते तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः । यातव्यो विजिगीषुणा यदि भवेदारम्भकोऽरिः स्वयं वृद्धिः प्रत्युत नेतुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ।।२५७॥ अर्थ-जो कर्म उदय न आया ताहि उग्र तपके बल करि उदयमैं ल्याय क्षय करै हैं । अर जो स्वयमेव उदय आया कर्म तौ खेद काहेका ? मुनिक खेदका नाम नांही । जैसें जीतवाकी है इच्छा जाकै सो वैरीपरि जाय करि जीतै । अर जो वैरी ही युद्धका आरंभ करि आप परि चलाय आवै तो तिनिकै कहा हानि ? इह तौ अधिक उछाह है। भावार्थ-जे जोधा शत्रु परि जाय शत्रुकू जीतै, तिनि परि जो शत्रु ही चलाय आवै तौ तिनकै कहा हानि ? त्यौं ही महा मुनि तपके बल करि कर्मनिकू उदयमें ल्याय खपावै तिनिकै स्वयमेव कर्म उदयमें आवै, ताविर्षे कहा खेद ? ____ आगे कहै हैं कि कर्मके उदयविर्षे खेद न माने जे मुनि ते कर्मनिकी निर्जरा करते शरीरसूभी भिन्न होनेका यत्न करें स्रग्धराछंद एकाकित्वप्रतिज्ञाः . सकलमपि समुत्सृज्य सर्वसहत्वाद् भ्रान्त्याचिन्त्याः सहायं तनुमिव सहसालोच्य किंचित्सलज्जाः । सज्जीभूताः स्वकार्य तदषगमविधिं बद्धपल्यङ्कबन्धाः ध्यायन्ति ध्वस्तमोहा गिरिगहनगुहागुह्यगेहे नृसिंहाः ॥२५८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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