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तपश्चर्याका प्रभाव
शार्दूलविक्रीडितछंद दूरारूढतपोऽनुभावजनितज्योतिःसमुत्सर्पणैः अन्तस्तत्वमदः कथं कथमपि प्राप्य प्रसादं गताः । विश्रब्धं हरिणीविलोलनयनैरापीयमाना वने
धन्यास्ते गमयन्त्यचिन्त्यचरितै|राश्चिरं वासरान् ।।२६०॥ अर्थ-अतिशयपणे तपके प्रभाव उपजी ज्ञानज्योति ताके प्रकाश करि वह निजात्मतत्त्व ताहि क्यौं ही प्राप्त होयकरि अतिशय आनंदकू प्राप्त भये हैं, अर विश्रामकू पाये हैं वनके जीव जिनतें, हिरणीनिके चंचल नेत्र तिनिकरि विश्वाससू देखिए है धन्य हैं वे धीर जे चितवनमैं न आवै ऐसे चारित्र तिनिकरि बहुत दिन वनविषै वितीति करै हैं ।
भावार्थ-जे निज स्वरूपविर्षे मगन होइकरि परम शांत दशाकू प्राप्त भये हैं ते धन्य हैं । वनके जीव भी तिनसू भय न करें, सबनिकू प्रिय हैं । आगै ऐसी बुद्धि उनकी कहा करै, सोई कहै हैं
शार्दूलविक्रीडितछंद येषां बुद्धिरलक्ष्यमाणभिदयोराशात्मनोरन्तरं . गत्वोच्चैरविधाय भेदमनयोरारान्न विश्राम्यति । यैरन्तर्विनिवेशिताः शमधनै ढं बहिर्व्याप्तयः तेषां नोऽत्र पवित्रयन्तु परमाः पादोस्थिताः पांसवः ॥२६१॥ ___ अर्थ-जिनकी बुद्धि जगतकी आशा अर आत्मा दोऊनिकै मध्य प्राप्त भई । कैसै हैं दोऊ ? नांही लख्या जाय है भेद जिनका, सो उन मुनिनिकी बुद्धि दोऊनिकै मध्य प्राप्त होइ भलै प्रकार भेद किये विनि विश्राम न प्राप्त भयी, भेद किया ही। कैसे हैं वे महामुनि । शांत भाव ही है धन जिनकै, अर बाह्य पदार्थनिविर्षे चित्तकी वृत्ति जाय थी सो जिनि अंतरंगविर्षे थापी तिनके चरण कमलकी परम रज या जगविर्षे कौनको पवित्र न करै ? सब ही कू पवित्र करै सो हमको पवित्र करहु । ': भावार्थ-जड़ चेतनका अनादि संबंध है, एकसे होय रहे हैं, सबनिकू एकसे प्रतिभासै हैं। जे महापुरुष भेद-विज्ञान करि दोऊनिकू न्यारे जानि जड़सू निर्ममत्व होय जगतको आशा तजै हैं तिनके चरण कमलकी रज जीवनिक पवित्र करै है ।
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