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.. आत्मानुशासन ... आगै बतावे हैं कि जाकै कर्म अपने कार्य करिबेते रहित भए, कर्मनिका यही कार्य जो नवे शरीर उपजावै सो अब उपजाय न सके, जाकी इह दशा भई सो ही योगी- .
यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् ।
स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्रवः ॥२४६॥ ___ अर्थ-जा विरक्तकै पून्य अर पाप, 'फल उपजाए बिना ही खिरि गये पुन्यका फल स्वर्ग, पापका फल नरक, सो वै कर्म जाकौं न देइ सके, सोही योगी, ताकै निर्वाण ही है बहुरि आस्रव नाही।
भावार्थ-पुन्य पाप ही संसार भ्रमणके मूल कारण हैं। जैसे फलका मूल पुष्प है सो पुष्प ही खिरि गया, तो फल कहांत होइ ? तैसैं जीवनिकै चतुर्गति फलका कारण शुभाशुभ कर्मनिका उदय है । सो महा मुनिक शुभाशुभ कर्म ही खिर गये तौ नवा शरीर कैसे होइ ? तातै तिनकै निर्वाण ही है। ___ आगै कहै हैं कि आस्रवका निरोध जो संवर सो प्रतिज्ञाके पालिवेत होइ है
महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा ।
मर्यादापालिबन्धेऽल्पामप्युपेक्षिष्ट मा क्षतिम् ॥२४७।। - अर्थ-महातपरूप तालाब सम्यक्दर्शनादि गुणरूप जलकरि पूर्णताकी प्रतिज्ञारूप पालिके बंधनविर्षे रंचमात्र हू हानि मति देखि सके ।
भावार्थ-जौ लगि पालि दृढ़ रहै तौ लगि तालाबविर्षे जल रहै । अर पालिकै रंचमात्र हू छिद्र होइ, पालि फूटि जाय तो तलाबमैं जल न रहै। तैसें गुणरूप नीर” भरया तपरूप तालाब ताकीप्रतिज्ञारूप पालि डिगै तो गुणरूप जल न रहै। - आगै कहै हैं कि महापुरुषनिकै संयमरूप घरकी हानिके ए कारण हैंदृढगुप्तिकपाटसंवृत्तिधृतिभित्तिमतिपादसंभृतिः ।। यतिरल्पमपि प्रपद्य रन्धं कुटिलविक्रियते गृहाकृतिः ।।२४८।।
अर्थ-यती पदरूप घरकै महादृढ़ मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्तिरूप कपाटका संबंध, अर उत्तम धृति धीरता यही भीति, अर बुद्धिरूप नीव गाढ़ी, सो कदाचि तुच्छ हू व्रत भंगरूप छिद्र होइ तौ महाकुटिल रागादिक सर्प यतीपदरूप घरकू दूषित करै । १. फल न उपजाए बिना ज० पू० २४६,४ ।
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