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परदोषदर्शी ही अज्ञ है
भावार्थ-जैसे घरकै किवाड़ भी बहुत गाढ़ा अर भीति हू गाढी अर नींव हू गाढी, परंतु जो रंच मात्र हू छिद्र होइ तौ सर्पादिक दुष्ट जीव निवास करै, तब रहनेवालेकौ निर्विघ्नता न होइ, कबहक प्राण ही जाय । तैसें यति पदरूप घरके गुप्तिरूप कपाट, धैर्यरूप भीति, बुद्धिरूप नींव, परन्तु व्रत भंगरूप अल्प हू छिद्र होइ तौ रागादिक कुटिल सर्प निवास करै, तो अनेक पर्यायनिविर्षे अनेक बार मरण करै । __ आगे कहै हैं कि रागादिक दोषनिके जीतिवेकू उद्यमी भया है मुनि अर कदाचि पर जीवनिके दोष कथन करै तौ रागादिकपुष्ट करै- .
स्वान् दोषान् हन्तुमुधुक्तस्तपोभिरतिदुर्धरैः।
तानेव पोषयत्यजः परदोषकथाशनः ॥२४९।। ___ अर्थ-अति दुद्धर तप करि अपने दोष हणिवेक उद्यमी भया है, अर कदाचि ईर्षाके योगरौं पराया अपवाद करै, पराये औगुण गावै तौ पर दोष कथारूप भोजनकरि रागादि दोषनिकू पुष्ट करै।।
भावार्थ-विवेकी निकृ पराई निंदा करनी योग्य नाही, अर जो कदाचि पर निंदा करै तौ जैसे रस संयुक्त भोजन करि देह पुष्ट होइ तैसैं परदोष कथन करि राग द्वेषादि दोष पुष्ट होइ, तिनिकरि मुनिपदका भंग होइ । ___ आगै कहै हैं कि दोगनिकू जीतिकरि व्रत आचरै हैं मुनि ताके कके वशतें कदाचि चारित्रादिविर्षे कोऊ दोष उपज्या, अर वाकै गुण प्रगट करै तौ गुणनिकी महिमा न होय
शार्दूलविक्रीडितछंद दोषः सर्वगुणाकरस्य महतो दैवानुरोधात् क्वचिज्जातो यद्यपि चन्द्रलाञ्छनसमस्तं द्रष्टुमन्धोऽप्यलम् । द्रष्टाप्नोति न तावतास्य पदवीमिन्दोः कलकं जगद् विश्वं पश्यति तत्प्रभाप्रकटितं किं कोऽप्यगात्तत्पदम् ॥२५०॥
अर्थ सर्व गुणनिकी खानि जो महा पुरुष ताकै पूर्व कर्मके वशतें कोई मूल गुणादिविर्षे चंद्रमाके लांछिन समान अल्प हू दोष उपज्या तो ताके देखनेकू अंध कहिये जगतके अविवेकी मूढदृष्टि लोक हू समर्थ होइ । जगतकी दृष्टिमैं वह दोष आवै । अल्प ही दोषकरि गुणवंतका पद कलंकित होइ । जैसैं चंद्रमाका कलंक चंद्रमाकी प्रभाही. प्रगट कीया सो
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