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विवेकियोंकी प्रवीणता अज्ञानसे जुदी १६३ आगै कहै हैं कि भ्रन्ति दूरि भए इह निश्चय हो हैं जो कायादिकक अनुराग बुद्धिकरि विलोकै ताके वह विलोकना कर्मबंधकै निमित्त है अर वैराग्य बुद्धि करि देखै, ताकै कर्मबंधके विनाशकै अर्थि होय है
शार्दूलविक्रीडित छंद बन्धो जन्मनि येन येन निबिडं निष्पादितो वस्तुना वाह्यार्थैकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः साम्प्रतम् । तत्तत् तन्निधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥२४४॥ __ अर्थ-या संसारमें बाह्य पदार्थनिविर्षे एक अद्वितीये है प्रीति जाकी ताकै जिन जिन मन वचन कायादिक वस्तुनिकरि आगै अति गाढ़ा कर्मनिका बंध उपज्या, अर अब वैराग्यकी हद्दकं प्राप्त भया, यथावत् पदार्थनिके पर ज्ञानरूप बुद्धि परिणई तब तेई वस्तु बंधके विनाशिवेकै अथि साधनरूप भई, तातें जो अज्ञानकरि मैं रागादिरूप परणया सो अज्ञान तौ जुदा ही है । अर विवेकीनिका अपूर्व प्रवीणपणां है सो जुदा ही है। ___ भावार्थ--जब देहादिक पर वस्तुनिषं राग बुद्धिकरि देखै था तब रागीकै तेइ वस्तु बंधका कारण हुती अर जब वैराग्य बुद्धि करि देखने लगा तब कायादिक मुक्तिके साधनरूप भई । तातै राग भाव तजि वीतराग भावका यत्न करना। - आगै बंध अर बंधका नाश-जा भांति होइ सो ही अनुक्रम दिखावै हैं
अधिकः क्वचिदाश्लेषः क्वचिद्धीनः क्वचित्समः । क्वचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ।।२४५॥ अर्थ-कहुँ एक तौ कर्मका बंधन अधिक है अर निर्जरा अल्प है, अर कहुँ एक बंध अल्प है, निर्जरा विशेष है। अर कहुँ एक बंध तथा निर्जरा समान है। अर कहुँ एक केवल निर्जरा ही है । इह बंधनेका वा छूटनेका अनुक्रम हैं।
भावार्थ या जीवकै मिथ्यात्त्व गुणस्थानै तौ कर्मनिका बंध बहुत हो है, अर निर्जरा तुच्छ है । अर पंचम गुणस्थानादि अगिले गुणस्थाननिविर्षे बंध अल्प है । निर्जरा बहुत है । अर चतुर्थ गुणस्थानविर्षे बंध अर निर्जरा दोऊ समान हैं। अर अकषायीनिकै निर्जरा ही है, बंध नाही । यह बंध अर निर्जराकी परिपाटी कही। . .
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