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१६२ ....... आत्मानुशासन विर्षे तौ आत्मा अशुद्धता करि युक्त है। बहुरि सम्यग्दर्शनादि उपायकरि अशुद्धताका नाश करै तब शुद्ध होय है..' आगे कहै हैं कि जो पुरुष शरीरादिकविर्षे निस्पृह है सो ही निस्पृह कहिये और नाही..... ममेदमहमस्येति , प्रीतिरीतिरिवोत्थिता ।
. क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत् काशा तपःफले ॥२४२॥ .. अर्थ-इह शरीर मेरा अर मैं याका, इह प्रीति उपद्रवकी करनहारी ईति समान अनादिकी लगी है। जौ लगि क्षेत्र कहिये शरीर ताविर्षे इह आप क्षेत्री कहिए स्वामी होइ रह्या है तौ लगि तपका फल जो मोक्ष ताकी कहा आशा ?
भावार्थ--इह तन मेरा क्षेत्र, अर मैं याका क्षेत्री कहिये धनी। इह मेरा, मैं याका, ऐसी प्रीति ईतिसमान उपद्रवकी करनहारी जौ लगि है तो लगि मोक्षकी कहा आशा ? अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मसक टीडी सूवा, अपना कटक, परका कटक ए सप्त ईति उपद्रवकी करनहारी तौ लगि किसान अन्नकी कहा आशा ? तैसें जीवकै देहविष नेह है तौ लगि मुक्तिकी कहा आशा?
आगै कहै हैं--प्रीतिके योगतै जीवकै जड़सूं एकताकी बुद्धि उपजै सोई संसारका कारण है अर या प्रीतिके अभाव मुक्ति है, ऐसा दिखावै हैं
मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे। नान्योऽहमहमेवाहमन्योऽन्योऽहमस्मि न ॥२४३।। अर्थ-भ्रान्तिके होत आपकू अन्य जे कायादिक तिनरूप जान्या अर कायादिककू अपनारूप जान्या । याही विपरीत ज्ञानकरि भवसमुद्र विष भ्रम्या । अब तूं यह जानिः-मैं पर पदार्थ नाही, मैं जु हूँ सो मैं ही हूँ अर पर पदार्थ पर ही हैं । तिनिमैं मैं नाही, मोमैं ते नांही।" __भावार्थ-या जगतविर्षे सर्व ही पदार्थ अपने अपने स्वभाव ही कू धारै हैं। काहू द्रव्यका काहू द्रव्यसू संबंध नाही, सब जुदे जुदे हैं। अर मैं अनादि कालतें मिथ्यात्व रागादिकके योगीतें देहादिक पर पदार्थनिक अपने जानता भया सो वै तौ मेरे तीन कालमैं न होय । अर मैं वृथा अपने जाने, याहीतैं संसारविर्षे भ्रम्या। अर अब सम्यग्ज्ञानके प्रभाव” मैं यह जानी जो यह अन्य पदार्थ मैं नाही, यह जड़, मैं चैतन्य, मेरै अर इनके कहा संबंध ? सो ये ही ज्ञान कल्याणका कारण है।
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