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बन्धनसे मुक्त होनेका उपाय
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है । पीछे शुद्धोपयोग भए शुभ हू छूट है। शुद्धोपयोगके प्रसाद करि यह जीव मुक्त हो है ।
आगे चार्वाक प्रश्न करे है-आत्मा होइ तो परम पदकी प्राप्ति होइ, आत्मा ही नांही तो परम पद कैसे होइ ? अर आत्माकूळ गर्भ आदि मरण पर्यंत काहूने देख्या नांही । वस्तु होइ तौ दृष्टि परे । इह तो चार्वाक कही। अर सांख्य कहता भया - आत्मा तौ सदा मुक्त ही है । पहली अशुभकू तजि बहुरि शुभकू तजि परम पद पावै, इह तौ अयुक्त । तब श्री गुरु 'दोऊनिका समाधान करे हैं
शार्दूलविक्रीडितछंद
अस्त्यात्मात्माऽस्तमितादिबन्धनगतस्तद्बन्धनान्यास्रवैः क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित् सम्यक्त्वव्रतदक्षताऽकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ।।२४१।।
अर्थ — बहुरि सो आत्मा जातिस्मरण करि आपके पूर्व भव दृष्टि परे है, अर भूतादिक अपने पूर्व भव क है हैं, सो जीवनिके पूर्व भवकी प्रतीति आ है। तातैं आत्मा है, सो आत्मा अनादि कालका कर्मनिकरि बंध्या है । ते कर्म बंध आस्रवनि करि हैं, अर आस्रव क्रोधादिक करि होइ हैं । अर क्रोधादिक प्रमाद जनित हैं, अर प्रमाद हिंसादिक अव्रतनितें हैं, अर अव्रत हैं सो मिथ्यात्त्व करि उपचित कहिए पुष्ट हैं । सो आत्मा मिथ्यादर्शनादि करि मलिन है । अर काल-लब्धि पाय काहू एक मनुष्य भवविषें सम्यक्त्व, व्रत, विवेक, निः कषायता इनिके योगकरि अनुक्रमें मुक्ति होइ है।
भावार्थ - चार्वाक तौ ऐसे कहै हैं जो आत्मा है ही नांही । सो आत्मा न होइ तौ ऐसा संदेह कौनकै होइ जो आत्मा नांही ? अर आत्मा न होइ तौ वितरादिक ऐसें क्यौं कहै जो मै फलाना था, अर अगिले भवकी तथा या भवको पहली बात कौनकू यादि आवै । अर जो आत्मा ही न होय तौ पुन्य-पापका फल कौन भोगवे ? आत्मा न होय तौ अहंकार ममकार कौनकै होय ? तातैं आत्मा है, इह बात निःसन्देह भई । अर सांख्य कह जो सर्वथा शुद्ध ही है । सो सर्वथा शुद्ध ही होय तौ संसार भ्रमण कैसे होइ ? और कोऊ सुखी, कोऊ दुखी, कोऊ नीच, कोऊ ऊँच ऐसा भेद काकू होइ ? अर सर्वथा शुद्ध ही होय तौ शुद्ध होनेकै अर्थि तपश्चरणादि साधन काहे कह्या ? तातें इह निश्चय भया जो संसार अवस्थानि
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