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आत्मानुशासन आगे कहै हैं कौन वस्तु हितकारी, कौन अहितकारी, सोई दिखावै हैं
शुभाशुमे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट त्रयम् ।
हितमाघमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥२३९॥ __ अर्थ-शुभ कहिए उत्तम वचन, करुणारूप मन, संयमरूप काया ये प्रशंसा योग्य हैं। अर अशुभ कहिये कुवचन, निरदय चित्त, अवतरूप काया ये निदा योग्य हैं । इन दोऊनिकरि पुन्य पाप होय है । शुभते पुन्य, अशुभतें पाप । पुन्यतै सुख, पापतै दुख । ए शुभ अशुभ, पुन्य पाप, सुख दुःख छह भए। तिनिमैं आदिके तीन शुभ, पुन्य, सुख ए हितकारी सो आदरणे, अर अंतके तीन अशुभ, पाप, दुःख ए तीन अहितकारी ते तजिवे योग्य हैं।
भावार्थ-निश्चयनयकरि विचारिए तौ या जीवकू एक शुद्धोपयोग ही उपादेय है। अर शुभ अशुभ दोऊ ही हेय हैं । तथापि व्यवहार नयकरि विचारिए तौ अशुभ तौ सर्वथा ही तजिवे योग्य है, जा” ए सर्वथा मोक्ष मार्गका घातक है । अर शुभोपयोग यद्यपि मोक्षका साक्षात् कारण नाहीं, परंतु परंपराय मोक्षका कारण है । तातें कथंचित्प्रकार प्रथम अवस्थाविर्षे उपादेय है। शुभ परणामनितें पुन्यका बंध होय, अर पुन्यतै स्वर्गादिकका सुख होय । अर अशुभ परणामनितें पापका बंध होय, पाप” नरक निगोदादिक दुःख होइ । तात काहू प्रकारहू अशुभोपयोग उपादेय नाही।
आगें अशुभादि तीनके त्यागका अनुक्रम दिखावे हैंतत्राप्याद्यं परित्याज्यं शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभं च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥२४०
अर्य-प्रथम तो अशुभ अहित छूटै । ताकै अभावकरि पाप अर दुःख ह छुटै । बहुरि शुद्धोपयोगके प्रभाव करि शुभ हू छूटै । अर शुभके छूटै” पुन्य अर स्वर्गादिक सुख हू न होय । कारणके अभावतें कार्यहका अभाव होइ। जब शुभ हू छुट्या तब परम वीतराग भावरूप शुद्धोपयोगविर्षे तिष्ठि करि परम पदकू पावै । वह परम पद शुभ अशुभ दोऊनितें रहित है । दोऊनिके अंतविर्षे होइ है। ___भावार्थ-आत्माका उपयोग दोय प्रकार है, एक शुद्ध, एक अशुद्ध । अशुद्धके दोय भेद-अशुभ तथा शुभ । सो अशुभतें पाप अर पाप नरकादि दुःख । ता” अशुभ तौ सर्वथा तजिवे ही जोग्य । बहुरि शुभते पुन्य अर पुन्यतें स्वर्गादिक सुख, सो अशुभके निवारिवे अथि शुभका ग्रहण होय
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