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प्रवृत्ति और निवृत्तिका कारण
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भावार्थ - जौ लगि या जीवकै रागादिक परभावनिकी प्रवृत्ति है तो लगि याकू निवृत्ति ही का अभ्यास करना । अर जब इह पर वस्तुके संबंधतैं रहित होय मुक्त भया तब प्रवृत्ति अर निवृत्ति दोऊनि ही तैं प्रयोजन नांही । जैसे रोग है तौ लगि औषधका सेवन करना कर्त्तव्य है । अर रोगका अभाव भए औषध प्रयोजन नांहीं । तैंसें जो लगि प्रवृत्ति है तो लगि ताके निवारिकै अर्थ निवृत्तिका अभ्यास है । अर प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव भए निवृत्ति तैं कछू प्रयोजन नांही ।
आगे कहै हैं प्रवृत्तिका स्वरूप कहा, निवृत्तिका स्वरूप कहा, अर इनका मूल कारण कहा
रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् ।
तौ च बाह्यार्थसंबद्धौ तस्मात्तांश्च परित्यजेत् || २३७॥
अर्थ - राग अर द्वेष ये ही प्रवृत्ति अर इनिका निषेध सो ही निवृत्ति । अर ए दोऊ बाह्य पदार्थनि के संबंधते हैं, तातैं धन धान्यादि बाह्य पदार्थनिका त्याग करना ।
भावार्थ - रागादिककी प्रवृत्तिका मूल कारण पर वस्तुका संबंध है । तातैं निवृत्तिकै अर्थि देहादिक पर द्रव्यनितें ममत्व तजना । यातें पर वस्तुकूं अनादितें अपनी मानी, परंतु पर वस्तु याकी भई नांही । तातैं इनिकं अपनी जानि वृथा हो खेदखिन्न होय है । सो निज स्वरूपकं जानि परतें प्रीति तजना योग्य है ।
आगे कहै हैं कि परिग्रहका परित्याग करता जो मैं सो या प्रकार भावना भाऊँ हूँ
भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः ।
भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥ २३८ ॥ अर्थ – मैं संसाररूप भ्रमणकै विषै भवभ्रमणके अभावकै अर्थ पूर्वे न भाई जे सम्यग्दर्शनादि भावना तिनकूं ' भाऊँ हूं । अर जे मैं पूर्वै मिथ्यादर्शनादि भावना अनादि कालतें भाई ते नांही भाऊँ हूँ ।
भावार्थ - मिथ्यादर्शनादि भावना भव - भ्रमणका कारण पूर्वै सदा भाई सो अब न भाऊ हूँ । अर सम्यग्दर्शनादि भावना मोक्षका कारण कदे न भाई सो भाऊँ हूँ ।
१. भावना तिनकूँ भाऊँ हूँ । भावार्थ - मिथ्यादर्शनादि ज०उ० २३८-५ २. भाई सो अब उ न भाऊँ हूँ । आगे कहें हैं ज० उ० २३८, ७ ।
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